हम ब्राह्णण का विरोध नहीं करते बल्कि जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने वाली विचारधारा, ब्राह्मणवाद का। ऐसा करने वाले जन्मना अब्राह्मण भी उसी कोटि में आते हैं, जिन्हें नामकरण की सुविधा के लिए नवब्राह्मणवादी कहा जा सकता है। मुझसे लोग पूछते थे कि सोसलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलन के ज्यादातर नेता ब्राह्मण क्यो होते हैं? कबीर जैसे अपवादों को छोड़कर, प्रमुखतः समाज और इतिहास की समग्रता में वैज्ञानिक समझ वही विकसित कर सकते हैं जिन्हें बौद्धिक संसाधनों की सुलभता हो। पारंपरिक रूप से ब्राह्मणों को बौद्धिक संसाधनों की सुलभता रही है तथा आधुनिक शिक्षा में भी वही अग्रणी रहे। हमारे समय में इवि में लगभग 99 फीसदी शिक्षक ब्राह्मण और कायस्थ थे। प्रोफेसरों की लॉबींग भी इन्ही जातियों की थी-ब्राह्मण लॉबी और कायस्थ लॉबी। वामपंथी समझे जाने वाले ज्यादातर इतिहासकार और बुद्धजीवी ब्राह्मण ही थे चाहे राहुल सांकृत्यायन हों या डीडी कोशांबी, नागार्जुन हों या धूमिल, हजारी प्रसाद द्विवेदी हों या मुक्तिबोध, देबी प्रसाद चट्टोपाध्याय हों या गोरख पांडे......, नृपेन चक्रवर्ती हों या सरयू पांडे, इंद्रजीत गुप्त हों या विनोद मिश्र। शिक्षा की सार्वभौमिक उपलब्धता से समीकरण बदल रहे हैं। बदलते समीकरणों के चलते ही ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बचाने-बढ़ाने के लिए उसकी राजनैतिक अभिव्यक्ति के रूप में हिंदुत्व की विचारधारा गढ़ी गयी जिसे मृदंग मीडिया एवं भक्त समुदाय राष्ट्रवाद के रूप में प्रक्षेपित कर रहा है। बदलते समीकरम के चलते ब्राह्मणवादी वैचारिक वर्स्व को मिलने वाली चुनौती के ही चलते संघ के प्रतिनिधित्व में ब्राह्मणवादी खेमे की बौखलाहट दिख रही है।
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