मेरी थेसिस तो सैद्धांतिक है, अपने गांव-कस्बे में जुगाड़ हो तो रिक्शा चलाने या चौकीदारी करने कोई 1000 किमी दूर क्यों आएगा? वापस क्यों जा रहे हैं? विकल्पहीनता में, शायद किसी अदृश्य उम्मीद में। हम सब घर-बार छोड़कर वहां रोजी-रोटी की समुचित जुगाड़ न होने के चलते ही तो इतनी दूर आए हैं। मैंने तो इवि, बीएचयू, काशी विद्यापीठ सब जगह इंटरविव दिया नौकरी लग जाती तो दिल्ली में क्यों जिंदगी खपाता? अपने गांव के आस-पास रिक्शा चलाने से काम चलता तो समस्तीपुर से रिक्शा चलाने क्यों यहां आते सब। समस्तीपुर का ख्याल इसलिए आया कि यूनिवर्सिटी में रिक्शा लगाने वाले भूपत का वहां से फोन आया वह कोरोना के लॉकडाउन के पहले ही चले गए थे। 5 साल पहले हमने उनपर एक कविता लिखा था, 'भूपत के जमीन नहीं है'। किसी मुसीबत में हैं 1500 रु. चाहिए था बेटी से उनके खाते में डलवा दिया।
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