15-20 साल के लड़के जो उन्माद में मरने-मारने पर उतारू हो गए थे उनका दंगों में कोई हित नहीं है, उनके अंदर लगातार जो नफरत का जहर भरा जाता रहता है उसमें वे पागल हो जाते हैं, आजकल सोसल मीडिया पर हिंदू-मुसलमान करके वही जहर भरा जा रहा है। कपिल मिश्र जब डीसीपी को दंगे की धमकी दे रहा था तभी उसे रोक दिया गया होता तो इस कोहराम को रोका जा सकता था। इवि के हमारे सीनियर सेवा निवृत्त आपीएस, साहित्यकार विभूति नीरायण राय ने स्वराज एक्प्रेस चैनल पर पैनल डिस्कसन में दिल्ली पुलिस की 'नालायकी' के संदर्भ में बताया कि दि्ली पुलिस चाहती तो आधे घंटो में दंगा नियंत्रित कर सकती थी, लेकिन 3 दिन चलता रहा, गुजरात में 2002 में 3 महीने चलता रहा था। आधे घंटे वाली बात उन्होंने 1987 में निजी बातचीत में मेरठ-मलियाना के दंगों के समय भी बताया था। उस समय वे गाजियाबाद मेे डीआईजी थे इसलिए लेख में उन्हें उद्धृत नहीं किया था। अब पूरे देश का गुजरातीकरण हो रहा है। गणेश शंकर विद्यार्थी ने 1923 में दंगों के बाद प्रताप में लिखा था कि कुछ चतुर-चालाक लोग धर्म के नाम पर आमजन को उल्लू बनाकर लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं, जिसे रोकने के लिए गंभीर उद्यम की जरूरत है, आज जब देश जल रहा है, और भी गंभीर उद्यम की जरूरत है। वारिश पठान और कपिल मिश्र जैसे दंगाइयों को हिरासत में लेकर मिशाल कायम करने की जरूरत है। शूट ऐट साइट के आदेश से दंगाइयों के दिलों में दहशत पैदा करने की जरूरत है। 'खून अपना हो या पराया, नस्ल-ए-आदम का खून है' (साहिर)। सादर।
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