मैं तो मार्क्सवाद और नास्तिकता की कोई बात ही नहीं करता, न ही कभी मार्क्सवादी होने का दावा किया। संदर्भ आने पर नास्तिक होने की बात जरूर स्वीकार करता हूं। मेरा नाम देखते ही कुछ लोगों पर मार्क्सवाद का भूत सवार हो जाता है और वे अभुआने लगते है। कुछ बौद्ध निकायों, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मनुस्मृति आदि की ही तरह मार्क्स के कुछ लेखन तथा कुछ लेनिन और ग्राम्सी जैसे कुछ मार्क्सवादियों के लेखन तो मुझे नौकरी के तहत पढ़ाने के लिए पढ़ना पड़ा और विचारों की सहमति के चलते मार्क्सवादी हो गया जिसकी एक प्रमुख अवधारणा है सिद्धांत और व्यवहार (कथनी और करनी) की एकता। जब भी तथ्य-तर्कों पर आधारित न्याय या समानता की बात करता हूं लोग मार्क्स, लेनिन, माओ को बेवजह गालियां देने लगते हैं। वैसे मेरे पास ज्ञान का कोई महासागर क्या तालाब भी नहीं है, अपने गांव का लिश्वविद्यालच पढ़ने जाने वाला पहला बालक था, अभी तक जहां से भी मिलता है, सीखने की कोशिस करता रहता हूं। चुंगी पर इतना समय खर्चने का मन नहीं था, लेकिन शिक्षक हूं तो उत्सुकता शांत करना ड्यूटी है। सादर। 🙏
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