Avnish Pandey मैं चुनाव में कोई पक्ष नहीं था इसलिए इस चुनाव से मेरी मनो दशा का कोई मतलब नहीं है, यह फासीवाद की अभूतपूर्व विजय है, फासीवाद हमेशा प्रबल जनसमर्थन के साथ आता है तथा समर्थकों को भी एक एक कर खाता है। Satish Kumar Dwivedi जैसे सातवें सवार, मनोरोगियों की मनोदशा और मानसिक स्तर का पता जरूर चल रहा है। इस चुनाव की समीक्षा समय मिलने पर अवश्य करूंगा। इस चुनाव की तुलना 1984 के ही चुनाव से की जा सकती है। हर मोर्चे (रोजगार, खाला धन, आर्थिक विकास) फेल होने पर पुलवामा और बालाकोट के प्रायोजन से अंधराष्ट्रऴआध खआ एक नरेटिव तैयार किया गया जो काम कर गया। विपक्ष का दिवालियापन दूसरा कारण है। कांग्रेस राहुल गांधी का जनेऊ दिखाता फिरा तो बाकी जाति की गणना में व्यस्त रहे। सबसे महत्वपूर्ण बात कॉरपोरेटी पैसे और कॉरपोरेटी मीडिया की भूमिका है। अगर पिछले 5 साल अगले 5 साल के कुछ संकेतक हैं तो देश की अर्थव्यवस्था और रसातल में जाएगी, बेरोजगारी आसमान छुएगी। सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण विनाश होगा। सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर देश पाकिस्तान को मात देगा आर्थिक स्तर पर बनाना रिपब्लिक बनेगा। सांप्रदायिक फासीवाद से जातिवादी गिरोह नहीं लड़ सकते उसका जवाब सर्वहारा का जुझारू अभियान ही दे सकता है, जो अभी भविष्य के गर्भ में है। जिसके रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट ज्यादा मजदूरी पाने वाले तथा शासक होने का मुगालता पाने वाले मजदूर (मध्य वर्ग) है। दक्षिणपंथी उभार केवल भारत में ही नहीं है, दुनिया में है। ट्रंप और पुतिन भी अंधराष्ट्रवादी नरेटिव पर सियासी रोटियां सेंक रहे हैं। लेकिन निराश होने की जरूरत नहीं है, फासीवाद की ऐतिहासिक नियति इतिहास के कूड़ेदान में बजबजाना ही है। जातिवाद सांप्रदायिक फासीवाद का जवाब नहीं बन सकता क्योंकि सांप्रदायिक इकाई जातियों का ही समुच्चय है। विस्तृत व्याख्या की समीक्षा कीजिए, सदस्यों से अपशब्दावली में निजी आक्षेप की नीचता से बचने का अनुरोध है। यह मेरी हार नहीं है, बाजार के हाथों समाज की हार है। इसे निजी जीत समझने वाले कामगर अज्ञान की खुशफहमी के शिकार हैं।
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