यहां की कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व का चरित्र हमेशा अकम्युनिस्ट ही रहा, तात्कालिक समझौते दीर्घकालिक और स्थाई हो गया। चुनाव में शिरकत क्रांतिकारी चेतना के विस्तार के लिए रणनीतिक तौर पर अपनाया गया लेकिन वही इनका स्थाई भाव बन गया। कालांतर में (खासकर 1967 के संविद सरकारों के प्रयोग के बाद) सीपीआई तथा सीपीयम और अन्य चुनावी पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया। वर्ग संघर्ष और आत्मालोचना की तस्वीरें टांगकर उनपर फूल मालाचढ़ा दिया गया। नंदीग्राम सिंगूर कॉफिन की अंतिम कीलें साबित हुईं। आज हमारे पास फासीवाद से लड़ने के लिए सांप्रदायिकता और विश्वबैंक की दलाली में भाजपा की प्रतिस्पर्धी कांग्रेस के समर्थन के अलावा कोई रास्ता नहीं है। वैसे भीराजनैतिक रूप से अप्रासंगिक हो चुकी इन पार्टियों के समर्थन-विरोध का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। फिलहाल कॉ. अरुण माहेश्वरी जी से सहमत हूं कि फासीवाद से मुक्ति के लिए फौरी इलाज कांग्रेस के नेतृत्व में अन्य कॉरपोरेटी पार्टियों के गठबंधन का समर्थन ही चुनावी रास्ता है। दूरगामी लक्ष्य जनांदोलनों के जरिए सामाजिक चेतना का जनवादीकरण है, जिसकी ताकतें भविष्य के गर्भ में हैं, मौजूदा पार्टियों से जिसकी उम्मीद नहीं है।
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