हमारे शब्दों का जो स्वस्फूर्त चुनाव होता है वह वाकई स्वस्फूर्त नहीं होता बल्कि वैचारिक समाजीकरण की निरंतर प्रक्रिया का परिणाम होता है और उसमें लगातार गुणात्मक बदलाव आता है. यह बदलाव इतना गुपचुप होता है कि हम नोटिस नहीं कर पाते. कई बार हम अंजाने में अपनी बात से अंततः ऐसी विचारधारा का परोक्ष पोषण कर बैठते हैं, जिसके हम खिलाफ होते हैं.
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