Sanjay Srivastava मैने वाल्मीकि रामायण ही पढ़ा है, किशोरावस्था में कई बार (गोविंद मिश्र का संकलन, टीका समेत) भक्ति भाव से और फिर आलोनात्मक भाव से. दर-असल जिसे हम शैशवकाल से ही पूजते आए हों, ुसकी आलोचना बर्दास्त करना मुश्किल होता है, उसी तरह जैसे आत्मावलोकन और आत्मालोचना. आप सच कह रहे हैं सीता को घर से निकालते समय वोल्मीकि ने "जनता" से ही सीता की आलोचना करवाया है. यह बात अयोध्या पहुंचकर सीता को गर्भवती करने के बाद की है. मैंने जो उद्धरण दिया है, वह युद्ध के तुरंत बाद अग्नि परीक्षा के पहले की है (उत्तर कांड के पहले युद्ध कांड की). और यदि उसे सीता की "पवित्रता" पर विश्वास था तो कैसा मर्यादा पुरुषोत्तम था कि जनता को सत्य और न्याय की बात नहीं समझा पाया. मैने यही तो कहा कि वह समाज में व्याप्त मर्दवादी-वर्णाश्रम का पोषक था प्रवर्तक नहीं. चलिये, अगर सीता को रावण "प्रदूषित" भी कर चुका था, जिसका पता अग्नि-परीक्षा से नहीं चल पाया, तो उसके अपराध की सजा तो मिल ही चुकी थी, सीता को दुबारा वन में अकेले छोड़ देने की सजा का क्या औचित्य था? वही मर्दवादी धारणा आज भी कायम है कि बलत्कृत की अस्मिता छिपाने की जरूकत होती है, बलात्कारी की नहीं!
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