Wednesday, September 28, 2016

एक चिंतनशील इंसान

शुक्रिया.
होता है वह एक चिंतनशील इंसान
करे जो हर बात पर सवाल-दर-जवाब-दर-सवाल
अमूर्त लफ्फाजी की मांगता जीती-जागती मिसाल
करता खुद की विरासती सोच से सवालों का सिलसिला
है जो निर्ममता से संस्कारों की चीड़-फाड़ का मामला
तोड़ देता है संस्कारों की तर्कविसंगत विरासत
उतार फेंकता है परंपराओं की सड़ी नैतिकता का बोझ
बंद कर देता सर पर पूर्वजों की लाशें ढोने की रवायत
और भरता है नवनिर्मित निर्वात
विवेकसम्मत जनपक्षीय जज्बात से
करता है ज़ुल्म के मातों की ग़मखारी
जाये जान चली जाए
करता नहीं मगर मजदूर से गद्दारी
करता है बात वही हो जो तथ्य-तर्कों से प्रमाणित
करता है हवाई लफ्फाजी और कुतर्कों को खारिज
मिलाता नहीं हां में हां करता है हर वितंडे पर बवाल
हो मुद्दा ग़र उसूलों का खीचता है बाल-की-खाल
कहता है वो ग़र भक्त किसी भक्त को
तो देता नहीं उसे देशभक्ति सा तमगा
बतलाता है महज
भक्तिभाव के असाध्य रोग के चंद लक्षण
(ईमिः28.09.2016)

समाजवाद बबुआ

समादवाद बबुआ धीरे धीरे आई
प्रापर्टी डीलर के खनन मंत्री बनवाई
बेटवा-बिटिया-कुत्ता बिल्लिन के नांव
बड़ी बड़ई कंपिनिया बनवाई बनवाई
हरामखोरी क सब कालाधन उही में समाई
समादवाद एनके धीरे धीरे आई
जोमें मुलुकवा नीलामी का काली कमाई समाई
समाजवाद इनके इही कदर आई
समाजवाद बबुआ.......
खनन माफिया इज्जतदार मंत्री बनि जाई
सरकरवा के बपवा के गोड़वा में समाई
समाजवाद इनकै गत्ते गत्ते आई
गुंडन के गढ़ में सैफई उत्सव मनाई
समाजवाद बबुआ........
बिडला से आई औ अमरसिंह से आई
बेटवा-बिटिआ; बहू-दमाद;
भाय-भतीजा; नात-पनात
पोती-पोता; नाती-नातिन
नौकर-चाकर; कुकुर-बिलार
सबकै नैया पार लगायौ
सबके समाजवाद क सिपाही बनाई
समाजवाद.......
मुजफ्फरनगर में छुप-छुपाके मोदी से हाथ मिलाई
सूबे के सब अपराधिन क मंत्री-सांसद-विधायक
कछु-न-कछु बनवाई
समाजवाद.....
(गोरख पांडे के मशहूर गीत समाजवाद बबुआ .... से थोड़ी छेड़-छाड़ )
(ईमिः28.09.2016)

बजरंगी विमर्श 1

Umesh Sharma "दीनदयाल जी की मृत्यु 1953 मे.हुई ओर अटल जी ने दुर्गा 1971 के युद्ध के बाद कहा....अटल जी जैसे व्यक्तित्व पर भी इतना घटिया आरोप...डूब मरो" डूब तो आपको मरना चाहिए अपनी अनभिज्ञता की शर्म में. आपकी प्रोफाइल से पता चलता है कि आप बीजेपी के सांसद हैं? चुन-चुन के टिकट दिया गया है लगता है! ऐसे ऐसे सांसद हैं जो अपने विचारपुरुषों के बारे में भी नहीं जानते?दीनदयाल की मौत 1953 में हुई!! हा हा. दीनदयाल 1968 में बरास्ता मुगलसराय ट्रेन में मरे पाए गए थे. भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बलराक मधोक ने इस हत्या को जनसंघ की अंदरूनी शक्ति-समीकरण का परिणाम बताया था. मैं तब एक मूर्ख बालक की तरह बाल स्वयंसेवक था. वीरेश्वर या ऐसा ही कोई --एश्वर जौनपुर का जिला प्रचारक था, उसने दीनदयाल की हत्या को स्वाभाविक मौत बताया था तथा जांच की मांग करने वालों को संघ को बदनाम करने वाले पाकिस्तान समर्थक. उसके कुछ दिनों बाद गोलवल्कर का बनारस में कार्यक्रम था, उन्होंने अपने लंबे भाषण में इसका जिक्र नहीं किया था. वैसे समाज के बारे में दीनदयाल की सोच उतनी ही निंदनीय है जितनी गोलवल्कर की.

Tuesday, September 27, 2016

अपना ख्याल रखना मैथिली

अपना ख्याल रखना मैथिली
चैनलों की इस दुनिया में
जहां बलात्कार की स्टोरी किल कर दी जाती है
टीआरपी के लिए
और उसकी जगह डाल दीजाती है सनसनीखेज कहानी
किसी श्री श्री के जीने की कला की
सरकारी कृपा के लिए
अपना ख्याल रखना प्यारी मैथिली
काटते हुए सारी लक्ष्मणरेखाएं
और फासीवादी वर्जनाएं
बढ़ते ही रहना बेनकाब करते हुए सारे नकाबपोशों को
लेकिन अपना ख्याल रखना मेरी दुस्साहसी बेटी
फक्र है तुम पर.

लाल सलाम कॉमरेड चंदू

लाल सलाम कॉमरेड चंदू
शहादतें बेकार नहीं जातीं
रंग लाएगी ही तुम्हारी शहादत
फिलहाल तो मुंसिफ मिल गया है तुम्हारे कातिल के साथ
दोनों की सलीबें बनेंगीं जनता की अदालत में कॉमरेड
लाल सलाम लाल सलाम लाल सलाम कॉमरेड

लल्ला पुराण 183(फुटनोट 78)

Dheeraj Sharma विद्रोह में ही सर्जनात्मकता है, यदि दादा की पंचांगी दुनिया तथा तंत्र-मंत्र के फरेब से विद्रोह न करता तो लकीर का फकीर बन पोंगापंथी ब्राह्मण बना रहता. दादाजी के मूल्यों से विद्रोह, दादाजी का अपमान नहीं सम्मान था, इतिहास इसी तरह आगे बढ़ता है. हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करती है उसके ग्राह्य सार को संयोजित कर आगे बढ़ती है. इसी क्रम में मानवता पाषाणयुग से साइबर युग तक पहुंची है. वैसे उन्होंने मेरा नाम पागल रख दिया था, लेकिन, पोतों में, मुझे लगता था, मेरे प्रति उनका अतिरिक्त स्नेह रहता था. मन-ही-मन कहीं मेरे विद्रोह का सम्मान भी करते थे. मैंने शुरुआती बचपन के ब्राह्ममुहूर्त बिना समझे, गीता-राम चरित मानस की पंक्तियां दुहराते उनकी गोद में बिताया है. छुट्टियों में घर उनके साथ काफी समय बिताता था. मैं छुट्टियों में चौराहेबाजी करके घर देर से लौटता था. एक बार उन्होंने पूछा था कि मुझे भूत-प्रेत से डर नहीं लगता, मैंने कहा था कि कल्पना से डरने की क्या बात है? जब मैंने कहा कि भगवान भी धर्मभीरुओं के मन में ही रहते हैं, और जो चीज होती ही नहीं उससे क्या डर? उन्होंने प्यार से कहा, तू सचमुच का पागल है. पिता से संबंध-विच्छेद नहीं किया, आर्थिक संबंध विच्छेद किया. मार्क्स ने कहा है अर्थ ही मूल है. पिताजी पैसा देंगे तो विचार भी. किसान पिता बेटे में कलेक्ट्री-डिप्टी कलेक्ट्री का निवेश करना चाहते थे, किंतु मैं पूंजी नहीं था, एक संवेदनशील, चिंतनशील युवा था, जिसने धरती पर एक खूबसूरत कायनात गढ़ने का सपना देखा, जिस सपने को जीवन समर्पित. विचारों से स्वतंत्र होने की पूर्व शर्त है, आर्थिक स्वतंत्रता. अपने बल पर जीने के आत्मविश्वास में गजब की ताकत होती है, असंभव पर निशाना तानने का दुस्साहस आ जाता है.

आप की तीसरी बात, "मुझे लगता हे मानव जीवन बाल्यावास्था, किशोरावास्था, युवावास्था,प्रोढावास्था से वृदावास्था की ओर पहुचता है। अगर बचपन मे माता पिता बच्चो को मिटटी खाने से रोकने के लीऐ मारते या डाटते है,इससे बच्चो का सोषड नही होता बल्की एक सीख मिलती है ।" यदि मां-बाप बच्चे को मिट्टी खाने से रोकने के लिए मारते-डांटते क्यों हैं? बच्चे को मिट्टी खाने का निहितार्थ नहीं मालुम होता, जैसे प्यार और दोस्ती से उन्हें और बातें सिखाई जा सकती हैं, वैसे ही बिना मारे-डांटे मिट्टी खाने का निहितार्थ समझाया जा सकता है. लगभग सभी बच्चे मिट्टी खाते हैं, बच्चों को मारना वैसे ही अमानवीय है कारण जो भी हो. दर-असल अपने बचपन की नास्टेल्जिया की स्टीरियो टाइप सोच के चलते आपको लगता है कि बच्चों को मार-पीट कर ही सुधारा जा सकता है, सोच बदलिए.

आपकी अंतिम बात, "एक बात ओर कहना चाहूगाॅ ,अत्यधिक लाड दूलार बच्चो के जीद्दीपन ओर उद्दंड होने का निश्चीत कारण होता हे।" मैं कहां अत्यधिक लाड़-दुलार की बात कह रहा हूं, उसे तो मैं बच्चों की प्रताड़ना मानता हूं. मैं तो बच्चों के साथ, जनतांत्रिक, पारदर्शी, समतामूलक, समानुभूतिक मित्रता के व्यवहार की हिमायत कर रहा हूं. उन पर अपने सपने न थोपें, उन्हें खुद अपने सपने गढ़ने दें. सादर.

Monday, September 26, 2016

लल्ला पुराण 182 (बेतरतीब -- शिक्षा और दंड))

मित्रों, एक सज्जन ने इस मंच पर एकाधिक बार एक पोस्ट इस मंतव्य का पोस्ट किया कि बच्चे लाड़-दुलार से उद्दंड हो जाते हैं, उन्हें मार-पीट कर; प्रताड़ित करके; दंडित करके उनमें गुणों का विकास करना चाहिए. इस तरह के लोग लगता है  बचपन में मार खा खा कर खुद बंद-बुद्धि लतखोर हो जाते हैं और अपने बच्चों को भी खुद सा लतखोर बनाना चाहते हैं, इस तरह के बाल-अत्याचार के अपराधी अभिभावकों तथा शिक्षकों का चौराहे पर पंचलत्ती बोलकर स्वागत करना चाहिए.

मैंने जवाब में लिखा था कि मैं न तो कभी घर में मार खाया न स्कूल में, तो उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया! जरा अतीतावलोकन कीजिए और सोचिए जिन मां-बापों ने अपने बच्चों को दंडित करके गुणी बनाने की कोशिस की उनमें से कितने विद्वान बने? बचपन में विद्रोही तेवर के बावजूद "अच्छे" बच्चे की छवि थी. 9 सगे और कई चचेरे भाई-बहनों में लाड़-प्यार कितना मिला पता नहीं, लेकिन मार कभी नहीं खाया. एक बार (5-6 साल की उम्र में) पिताजी ने 1 रूपया खोने के लिए एक चांटा मारा तो दादी ने पलटकर एक उन्हें वापस दिया और पान खा रहे थे बाहर आ गया, हिसाब बराबर हो गया. पढ़ने-लिखने में तेज था, होम वर्क इसलिए पूरा कर लेता था कि टीचर क्लास में खड़ा न कर दे. 9 साल में प्राइमरी पास कर लिया सबसे नजदीक मिडिल स्कूल 7-8 किमी था. 12 साल में मिडिल पास किया, पैदल की दूरी पर हाई स्कूल नहीं था, साइकिल पर पैर नहीं पहुंचता था, सो शहर चल दिया और तबसे सारे फैसले खुद करने लगा. इलाहाबाद विवि में साल बीतते-बीतते क्रांतिकारी राजनीति में शिरकत के चलते आईएस/पीसीयस की तैयारी से इंकार करने के चलते पिताजी से आर्थिक संबंध विच्छेद कर लिया और अपनी शर्तों पर जीते हुए कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और अब इकसठिया गया हूं. इंटर में एक कमीन टीचर ने मारने के लिए छड़ी उठाया, मैंने पकड़ लिया कि बताओ क्यों मारोगे? उसने केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में फेल करने की कोशिस की लेकिन लगता है एक्सटर्नल नहीं माना और 30 में 10 नंबर देकर पास कर दिया, तब भी टॉपर से 19 नंबर ही कम आए.

13 साल में जनेऊ तोड़ दिया, कर्मकांडी दादा जी हर बार घर आने पर मंत्र-संत्र के साथ फिर से जनेऊ पहना देते थे, लेकिन कभी हाथ नहीं उठाया, अंत में ऊबकर छोड़ दिया. भूत का डर तभी खत्म हो गया, 17 की उम्र तक नास्तिक हो गया, काल्पनिक भगवान का भी काल्पनिक भय खत्म हो गया. 2  बेटियों का फक्रमंद बाप हूं, दोनों ही मेरी ज़िगरी दोस्त हैं. ज्यादातर मां-बाप अभागे दयनीय जीव होते हैं, समता के अद्भुत सुख से अपरिचित, बच्चों से मित्रता नहीं करते और शक्ति के वहम-ओ-गुमां में जीते हैं.

बच्चे कुशाग्रबुद्धि, सूक्ष्म पर्यवेक्षक तथा चालू और नकलची होते हैं, मां-बाप को प्रवचन से नहीं दृष्टांत से उन्हें पालना होता है. मैं आवारा आदमी जब बाप बना तो सोचा अच्छा बाप कैसे बना जाय. 1. बच्चों के साथ समतापूर्ण जनतांत्रिक तथा पारदर्शी व्यवहार करें. 2. उन्हे अतिरिक्त ध्यान; अतितिरिक्त संरक्षण एवं अतिरिक्त अपेक्षा से प्रताड़ित न करें. 3. बच्चों के अधिकार तथा बुद्धिमत्ता का सम्मान करना सीखें. 4. बच्चों की विद्रोही प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दें, विद्रोह में सर्जनात्मकता है. To rebel is to create. मार-पीट कर जो बच्चों को पालते हैं वे बच्चों के साथ अक्षम्य अमानवीय अपराध करते हैं तथा अपने बच्चों को भी खुद सा लतखोर गधा बना देते हैं. मेरी बेटियां नियंत्रण और अनुशासन की बेहूदगियों से स्वतंत्र पली-बढ़ी हैं तथा अपने अपने क्षेत्रों में, परिजनों में प्रशंसित होती हैं. लोग कहते हैं भगत सिंह पड़ोसी के घर पैदा हों, मुझे गर्व है कि दोनों भगत सिंह की उनुयायी हैं.

आप सबसे अनुरोध है कि अपने अहं और अज्ञान में बच्चों को दब्बू और डरपोक न बनाएं, उनके अंदर की विद्रोही प्रवृत्तियों को कुंद न करके उन्हें प्रोत्साहित और परिमार्जित करें. विद्रोही प्रवृत्ति में सर्जक-अन्वेशी संभावनाएं अंतर्निहित होती हैं. यदि किसी की बापाना भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो उनका इलाज कराएं.

ईमि

Thursday, September 15, 2016

शिक्षा और ज्ञान 89

ब्राह्मणवाद की आलोचना के मेरे एक कमेंट पर एक मित्र ने पूछा मैं क्या हूं? उस पर:

Aditya Anandएक शुद्ध इंसान, जाति तथा देशकाल से परे. मेरी जाति या देश-काल की अस्मिता एक जीववैज्ञानिक दुर्घना का परिणाम है, मेरे सायास प्रयासों का नहीं, जिसमें मेरा न तो योगदान है, न अपराध; जिस पर न मुझे गर्व है न शर्म. मैं अपने प्रयासों से क्या करता सोचता हूं, वह मेरा है, वह मैं हूं. जो पीयचडी करके भी बाभन से इंसान न बन सके, उसके बारे में क्या कहा जाए? बाभन से इंसान बनना एक मुहावरा है जिसका मतलब है, जन्म के संयोग की अस्मिता से ऊपर उठकर कर्म और विचारों से एक तर्कशील व्यक्तित्व निर्माण करने पाने की अक्षमता. यह मुहावरा मेरा अन्वेषण नहीं है, प्रशिद्ध इतिहासकार प्रो. आरयस शर्मा के कथन का इंप्रोवाइजेशन है. एक बार बातचीत में उन्होने कहा, "भूमिहरवे मानते ही नहीं कि मैं स्कूल में ही भूमिहार से इंसान बन गया". मैंने हंस कर कहा था, "सर मैं भी स्कूल में ही बाभन से इंसान बन गया."

Wednesday, September 14, 2016

मार्क्सवाद 32

Pawel Parasharउपरोक्त सभी लेखों और अन्यत्र भी मैंने रेखांकित किया है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां, यद्यपि जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्षों की अगली पंक्तियों में रहीं, लेकिन मार्क्सवाद को समाज समझने-बदलने के विज्ञान की बजाय मिशाल के तैर पर अपना लिया. मार्क्स जब यूरोपीय समाज के बारे में लिख रहे थे तब तक वहां समाज का विभाजन शुद्ध आर्थिक आधार पर था. जन्मआधारित विभाजन बुर्जुआ डेमोक्रेटिक क्रांति ने समाप्त कर दिया था. यहां ऐसी कोई क्रांति हुई नहीं. इसलिए यह अपरिपूर्ण काम एजेंडे में प्राथमिकता पर होना चाहिए था, जिसे पेरियार और अंबेडकर ने प्राथमिकता दी. मैं किसी कम्यनिस्ट पार्टी में नहीं हूं, मार्क्सवादी हूं और यह किसी पार्टी की निंदा नहीं बल्कि आत्मालोचना है, जो मार्क्लवाद की मूलभूत अवधारणाओं में से एक है. बहुत मुश्किल से यह विलंबित एकता स्थापित हुई है, इसे मजबूत करने की जरूरत है, तोड़ने की नहीं. मिलकर हम बहुत मज़बूत हैं. इस पर एक पुस्तक लिखने की कोशिस कर रहा हूं. अंबेडकर के विचारों पर किसी एक देश-काल या संगठन का एकाधिकार नहीं है. हर तरह के शोषण दमन के विरोधी ,अंबेडकर जातिवाद के विनाश के पक्षधर थे, प्रति-जातिवाद के नहीं; वे ब्राह्मणवाद के विनाश के पक्षधर थे नवब्राह्मणवाद के नहीं. मित्र हम इतिहास के एक अंधे दौर से गुजर रहे हैं, मिलकर लड़ने की जरूरत है, आपस में लड़ने की नहीं. संघर्षों की एकता से ही वैचारिक एकता निकलेगी.

मार्क्सवाद 31

Aditya Anandएक शुद्ध इंसान, जाति तथा देशकाल से परे. मेरी जाति या देश-काल की अस्मिता एक जीववैज्ञानिक दुर्घना का परिणाम है, मेरे सायास प्रयासों का नहीं, जिसमें मेरा न तो योगदान है, न अपराध; जिस पर न मुझे गर्व है न शर्म. मैं अपने प्रयासों से क्या करता सोचता हूं, वह मेरा है, वह मैं हूं. जो पीयचडी करके भी बाभन से इंसान न बन सके, उसके बारे में क्या कहा जाए? बाभन से इंसान बनना एक मुहावरा है जिसका मतलब है, जन्म के संयोग की अस्मिता से ऊपर उठकर कर्म और विचारों से एक तर्कशील व्यक्तित्व निर्माण करने पाने की अक्षमता. यह मुहावरा मेरा अन्वेषण नहीं है, प्रशिद्ध इतिहासकार प्रो. आरयस शर्मा के कथन का इंप्रोवाइजेशन है. एक बार बातचीत में उन्होने कहा, "भूमिहरवे मानते ही नहीं कि मैं स्कूल में ही भूमिहार से इंसान बन गया". मैंने हंस कर कहा था, "सर मैं भी स्कूल में ही बाभन से इंसान बन गया."

मार्क्सवाद 30

Pawel Parasharउपरोक्त सभी लेखों और अन्यत्र भी मैंने रेखांकित किया है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां, यद्यपि जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्षों की अगली पंक्तियों में रहीं, लेकिन मार्क्सवाद को समाज समझने-बदलने के विज्ञान की बजाय मिशाल के तैर पर अपना लिया. मार्क्स जब यूरोपीय समाज के बारे में लिख रहे थे तब तक वहां समाज का विभाजन शुद्ध आर्थिक आधार पर था. जन्मआधारित विभाजन बुर्जुआ डेमोक्रेटिक क्रांति ने समाप्त कर दिया था. यहां ऐसी कोई क्रांति हुई नहीं. इसलिए यह अपरिपूर्ण काम एजेंडे में प्राथमिकता पर होना चाहिए था, जिसे पेरियार और अंबेडकर ने प्राथमिकता दी. मैं किसी कम्यनिस्ट पार्टी में नहीं हूं, मार्क्सवादी हूं और यह किसी पार्टी की निंदा नहीं बल्कि आत्मालोचना है, जो मार्क्लवाद की मूलभूत अवधारणाओं में से एक है. बहुत मुश्किल से यह विलंबित एकता स्थापित हुई है, इसे मजबूत करने की जरूरत है, तोड़ने की नहीं. मिलकर हम बहुत मज़बूत हैं. इस पर एक पुस्तक लिखने की कोशिस कर रहा हूं. अंबेडकर के विचारों पर किसी एक देश-काल या संगठन का एकाधिकार नहीं है. हर तरह के शोषण दमन के विरोधी ,अंबेडकर जातिवाद के विनाश के पक्षधर थे, प्रति-जातिवाद के नहीं; वे ब्राह्मणवाद के विनाश के पक्षधर थे नवब्राह्मणवाद के नहीं. मित्र हम इतिहास के एक अंधे दौर से गुजर रहे हैं, मिलकर लड़ने की जरूरत है, आपस में लड़ने की नहीं. संघर्षों की एकता से ही वैचारिक एकता निकलेगी.

Tuesday, September 13, 2016

मार्क्सवाद 29

श्री प्रकाश जी, (Shree Prakash)अगर कम्युनिस्ट पार्टियों में गड़बड़ियां न होतीं तो मैं किसी कम्युनिस्ट पार्टी में होता. मैंने कई लेखों में विस्तार से लिखा है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद को समाज को समझने के विज्ञान के रूप में समाज की ठोस परिस्थितियों के अनुसार ढालने की बजाय मिशाल के रूप में अपना लिया. य़ूरोप में जन्मजात योग्यता पुनर्जागरण और प्रबोधन आंदोलनों के दौरान समाप्त हो चुका था सामाजिक विभाजन का आधार सिर्फ आर्थिक था. यहां कबीर के साथ शुरू हुआ नवजागरण (पुनर्जागरण नहीं) अन्यान्य कारणों से तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका तथा मार्क्स की अपेक्षानुसार पूंजीवाद के विस्तार के लिए औपनिवेशिक शासन ने 'एसियाटिक मोड' (वर्णाश्रम प्रणाली) को तोड़ने की बजाय उसका इस्तेमाल लूट में इज़ाफे के लिए किया. जितने सर और रायसाहब आदि बनाए सब लगभग सवर्ण. ऊपर दिए लिंक्स के चारों लेखों में मैंने इसका वर्णन किया है. शिक्षा का सार्वभौमीकरण, अंग्रेजी राज का अनचाहा सकारात्मक परिणाम है. समकालीन तीसरी दुनिया के ताजा अंक में "ज्ञान, शिक्षा और वर्चस्व" लेख में भी इस पर विस्तार से लिखा है. उसका लिंक भी नीचे दे रहा हूं. स्वतंत्रता आंदोलन ने भी जाति के मुद्दे को दूर ही रखा. यहां के कम्ययुनिस्टों की दोहरी जिम्मेदारी थी -- बुर्जुआ डेमोक्रेटिक क्रांति का अधूरा काम पूरा करना, यानि वर्णाश्रम के विरुद्ध संघर्ष तथा समाजवादी चेतना का निर्माण. यद्यपि जाति उत्पीड़न के विरुद्ध कम्युनिस्ट लड़े लेकिन इसे सैद्धांतिक मुद्दा नहीं बना पाए जो काम पेरियार और अंबेडकर ने किया. रोहित की शहादत ने जयभीम-लाल सलाम नारे की प्रतीकात्मक एकता स्थापित की, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है न कि कमजोर करने की, और हमारे बच्चे समझदार हैं, चुनाव की कटुता जल्द ही भूलकर साथ लड़ेंगे क्यों की कॉरपोरेटी ब्राह्मणवाद का हमला साझा है, प्रतिरोध भी साझा होना चाहिए. जन्म के आधार पर व्यक्तितव का मूल्यांन बंद करना पड़ेगा. मिश्राओं को भी वैज्ञानिक सोच विकसित करने का हक़ होना चाहिए.

मार्क्सवाद 28

प्रिय मित्र दिलीप (Dilip C Mandal), किसी पोस्ट में तुमने वाम मोर्चे के उम्मीदवारों की जाति का जिक्र किया है. मुझे बापसा के बच्चे उतने ही प्रिय हैं जितने वाम के बल्कि संशोधनवादी वाम से अधिक. मैं राष्ट्रवाद की कक्षाओं में एक क्लास की सिफारिश दोनों ही प्लेटफॉर्म के माइक मैनेजरों से की थी लेकिन शायद उनकी पार्टी लाइन के विपरीत था. बमुश्किल जय भीम- लाल सलाम के नारे को मजबूत करने की बजाय तुम्हारा लेखन उसे तोड़ने का था. मैंने बहुत प्रयास किया कि संघर्षों की एकता चुनाव में भी कायम रहे, लड़ाई भले ही एकतरफा हो जाती. तुम इतने लोकप्रिय हो कि तुम्हारे साथ मिलकर यह काम आसान हो जाता. काउंटिंग के समय मैं रिजल्ट पोस्ट करता था तो लिखता था वाम& वापसा = ... ABVP =.. . मैं अध्यक्षीय भाषण के वक्त कैंपस में था तथा उज्ज्वल दा (Ujjwal Bhattacharya) से पूर्णतः सहमत हूं कि राहुल का भाषण और उससे परिलक्षित सोच सर्वोत्तम थी. मैंने लाल और भगवा को साथ रखने पर और स्टैंडविद जेयनयू को स्टैंड विद जनेऊ के नारों पर विरोध दर्ज किया था. राहुल के जीतने पर भी मुझे उतनी ही खुशी होती. इतने वोटों में उसके भाषण का भी योगदान है. निजी रूप से मैं बासो के छात्रों को ज्यादा करीब पाता हूं. हम बुजुर्गों का (तुम तो बुजुर्ग नहीं हो, लेकिन चलो मान लेते हैं) दायित्व है कि इस नई एकता को मजबूत करें तथा उसके लिए सैद्धांतिक आधार तैयार करें. मैंने लिखा है कि एंगेल्स की कसौटियों पर खास परिस्थि में मार्क्स की तरह प्रतिक्रिया देने के अर्थों में अंबेडकर मार्क्सवादी थे. मार्क्सवाद और अंबेडकरवाद का अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण नहीं है और संघर्षों की एकता में समाप्त होगा. फोन खराब होने से तुम्हारा नंबर गायब हो गया है. इनबॉक्स कर सको तो अच्छा लगेगा. मेरा तुमसे अंतर्विरोध मित्रतापूर्ण है, इसीलिए व्यक्त कर देता हूं.

Sunday, September 11, 2016

शिक्षा और ज्ञान 88

मैं विज्ञान और गणित का विद्यार्थी रहा हूं और गणित पढ़ाया भी हूं. 11वीं क्लास में जब बच्चों को पढ़ाता था तो अफशोस होता था कि इन्हें किस गधे ने फॉर्मूला रटने का गणित पढ़ाया है? विज्ञान को विज्ञान की तरह वैज्ञानिक तेवर से पढ़ा जाय तो तार्किक तथा विश्लेषणात्मक अंतर्दृष्टि विकसित होती है. मुझे लगता है कि शायद करण-कारण की वैज्ञानिक समझ के ही चलते 13 साल की ही उम्र में जनेऊ तोड़कर बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया था. मुझे लगा था कि जात-पांत गांव के अपढ़ लोगों की बात है, शिक्षित लोग इससे उबर जाते हैं. जब इलाहाबाद विवि में बीयस्सी में प्रवेश लिया तो पहुंचते ही सास्कृतिक संत्रास झेलना पड़ा. प्रोफेसरों की लामबंदी (गिरोहबाजी) जातिगत थी. कायस्थ लॉबी के नेता 'भौतिकशास्त्री' प्रो. कृष्णाजी थे और ब्राह्मण लॉबी के नेता दूसरे भौतिकशास्त्री मुरली मनोहर जोशी जो मानव संसाधन मंत्री बनने के बाद ज्योतिष को विज्ञान के समकक्ष पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहते थे. जमात-ए-इस्लामी और आरयसयस के सारे बड़े नेता विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं. मौदूदी और गोलवल्कर दोनों विज्ञान पढ़े थे. डाभोलकर का हत्यारा तवाड़े और नफरत की खेती करने वाला तोगड़िया दोनो डॉक्टर हैं.

Thursday, September 8, 2016

Marxism 19

Sanjeev Kumar I expected this question and welcome. I fondly remember my those very few students who at one point or other of time asked me inconvenient questions. ( I am writing an article सत्यनारायण की कथा और देशभक्ति, thought of talking to you tomorrow but that would be late)

No, reservation is anti-Brahmanical, though reformative and not revolutionary way of eradicating the caste injustices and inhumanly oppressive caste discrimination. During anti-Mandal fascist upsurge, the composition of camppuses was quite different from today.The campuses were upper caste dominated. Reservation has been instrumental in democratizing the composition of campuses. It were the left individuals and organization that stood up against the tide under the treats of mob lynching. In DU, the DUTA President MMP Singh had to resign as though we overdid them (Congress&RSS together and "apolitical" upper caste teachers with Brahmanical mind set) in lung power but they outdid us in numerical power. DUTA resolution defending Mandal was defeated. Amit Sengupta, a leftist, was JNUSU President who too had not only to resign due to defeat of JNUSU resolution in the GBM. I was with him when the anti-reservation lumpens were threatening him of mob lynching and we dared them to touch us. On my posts on JNU, kasmir, Attrocities on Dalits I get most offending abuses from Mishras, Pandeys, Shuklas, Avasthis....... and the most of vulgar including of Ma-Bahan in my inbox. I simply block them as their education has not helped them in transcending the attributes arising from the biological accident of birth in which no one has any role. For the last 45 years I have been confronting the question that why do I write Mishra? As if Mishras have no right to develop scientific outlook? I face the same question from the realm of identity politics. I call them neo-Brahmans. Jokingly, I tell them that I haven't done away with Mishra to confess that my ancestors are also among those who have been responsible for keeping the society economically and intellectually for tens of centuries. There is no one or uniform left, it is fractured, fraction-ed and confused. It is also, like capitalism, facing the crisis of theory and the communist parties do not have monopoly over class struggle. Many of them have ceased to be communist long away and I have written about it in many write ups. I will post here some links. The crisis of Indian communists lies in their adopting Marxism as a model instead of adapting it as a a science to comprehend and method to change. In Europe the birth qualification was demolished during Renaissance, in India nothing like that happened. Therefore priority of Indian communists should have been the accomplishment of unfulfilled task by bourgeois democratic movement (the nationalist movement under Congress) to demolish the "Asian Mode" (Brahmanism). Any Communist Party must not take it personally, as it is self criticism, as I have been part of adopted Marxism. What I wish to request my young friends that identity politics has its limitations and has acquired theoretical victory as no one, howsoever casteist can publicly claim so, owing to great leap forward in terms of Dalit assertion and scholarship. Next step is radicalization of Dalit consciousness one of the major components of potential revolutionaries. My only request is trust me until proved wrong and judge me by my words and deeds and not by the suffix of my name. Rohith's martyrdom generated the much overdue unity of the slogans of Jay Bhim -- lal salam. Lets theorize this symbolic unity and pay real homage to Rohith whom in one of my write ups cpmpared with Bhagat Singh. Let us respect the legacy of Bhagat Singh and not reject it as upper caste. JAY BHIM LAL SALAAM.

शिक्षा और ज्ञान 87

आपका क्रोध और विरोध उनपर नहीं उतरना चाहिए जिनके पास आप पर दमन का दम नहीं है, बल्कि उनपर जिनके पास दमनतंत्र है और जो वास्तव में आपका दमन करते रहे हैं. यह बात दिवंगत, मुक्केबाजी चैंपियन मोहम्मद अली के अमेरिकी सेना में भर्ती होने से इंकार के "देशद्रोह" और देश पर मंड़रा रहे "बांगलादेशी घुसपैठियों के खतरे" के संदर्भ में दिमाग में आई.

Tuesday, September 6, 2016

फुटनोट 76 (इविवि)

यह कमेंट पोस्ट के रूप में पोस्ट कर रहा हूं.

शुक्रिया, मित्रों. इलाहाबाद विवि पूर्व छात्रों के कई ग्रुपों- कुटुंब; चुंगी; माटी; .... -- ने मुझे जोड़ा और मठ की सुचिता बचाने के लिए निकाल दिया, बिना किसी कारण बताओ नोटिस के. बुरा नहीं लगा क्योंकि नएपन से आस्था को डर लगता है. यह पहला ग्रुप है जिसे नाम में रेसनल देख कर मैंने खुद भर्ती की अर्जी दी थी. अर्जी की मंजूरी के लिए शुक्रिया. उम्मीद है यहां टिक सकूंगा और तर्कशील विमर्श में योगदान कर सकूंगा. स्वस्थ जनतांत्रिक विमर्श के लिए जरूरी है सहभागियों का पूर्वाग्रह-दुराग्रह से मुक्त होना, ऐसा गांधीजी ने कहा था. दूसरा, विचारों के टकराव ही विचारों के इतिहास को गति देते हैं, इसलिए असहमति को खेत मेड़ की लड़ाई न मानी जाय. तीसरा, विषयांतर विमर्श को विकृत करता है, उससे बचना चाहिए. लेखक से किसी और बात पर सवाल करने हों या हिसाब मांगने हों तो अलग पोस्ट पर बहस की जानी चाहिए. चौथा खंडन-मंडन विचारों का होना चाहिए,निराधार निजी आक्षेप पीड़ादायक होता है और कटुता पैदा करता है. खंडन-मंडन तथ्य-तर्कों के आधार पर होना चाहिए, विरासती मान्यताओं के आधार पर नहीं. जरूरी नहीं कि हमारे पूर्वज हमसे अधिक बुद्धिमान रहे हों. इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता. हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को सहेज कर आगे बढ़ाती है. तभी तो हम पाषाण युग से साइबर युग तक पहुंचे हैं. आप कहेंगे, पहुंचते ही प्रवचन! क्षमा कीजिएगा, छाछ फूंककर पीने का मामला है. अंतिम बात, मेरे नाम का सफिक्स विरासती है, जिसमें मेरा कोई योगदान नहीं है , प्रेफिक्स अर्जित है. संबोधन मेरी अर्जित पहचान को होना चाहिए. संक्षिप्त पहचान यह है कि मैं इविवि में 1972-76 में था उसके बाद जेयनयू. इविवि की बौद्धिक बुनियाद पर कुटिया जेयनयू में बनी, जो कायम है. यदि इस ग्रुप में सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर विमर्श में सार्थक योगदान दे सका तो धन्य समझूंगा.

Monday, September 5, 2016

हर्फ-ए-सदाकत

लिखता ही रहेगा मेरा कलम हरफ-ए-सदाकत
रोक नहीं सकती इसे ज़ुल्मत की कोई भी ताकत
लिख रहे हों जब दानिशमंद सज्दों का अफसाना
लिखना ही है मेरे कलम को बगावत का तराना
बन रही हो ग़र सर झुकाके चलने की रवायत
लाजिम है बचाना सर उठाके चलने की आदत
फिरकापरस्त कहर से बचाना है गर कायनात
रोकना होगा शेख-बिरहमनों की फरेबी खुराफात
अंधेयुग के किलेदार से न होगा मेरा कलम भयभीत
बेख़ौफ लिखता रहेगा इस अंधेयुग के बेबाक गीत
(बस यों ही कलम फिर आवारा हो गया)
(ईमि: 05.09.2016)

शिक्षा और ज्ञान 86 (नौकरी)

1970 के दशक के शुरुआती दिनों में इलाहाबाद विवि में वामपंथी छात्र आंदोलन से जुड़ते ही, हम 70 के दशक को मुक्ति का दशक बताते हुए दीवारों पर पर नारे लिखते हुए हमें लगने लगा था कि क्रांति दूर नहीं है. हमारी खुशफहमियां और उम्मीदें निराधार नहीं थीं. चीनी क्रांति, अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन, क्यूबा, फ्रांस की 'मई क्रांति' 1960 के दशक में यूरोप के विभिन्न देशों में क्रांतिकारी उफान, नक्सलबाड़ी, वियतनाम में अमेरिकी पराजय, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सब अच्छे संकेतक थे. लेकिन आपातकाल में स्पष्ट हो गया कि क्रांति चौराहे पर नहीं है. आजीविका के लिए श्रम बेचने को तो हम सब अभिशप्त हैं ही, मुधे लगा कि शिक्षक की नौकरी है जिसमें एलीनेसन कम किया जा सकता है और अंशतः छात्रों को थोड़ा 'बिगाड़कर' ऐक्टिविज्म की भरपाई हो सकती है. लेकिन रंग ढंग ठीक किया नहीं. 17-18 की उम्र तक प्रामाणिक हो गया था जब गॉडवै नहीं तो गॉडफादर कहां से होता. संघर्षों से सर उठा के चलने की आदत पड़ गई, सर झुकाकर सर बनना कबूल नहीं था. कई संयोगों के टकराव की दुर्घटना में नौकरी मिल गई. लोग कहते हैं तुम्हें देर से नौकरी मिली, मैं ईमानदारी से कहता हूं सवाल उल्टा है, मिल कैसे गई. वाम-मध्य-दक्षिण नौकरी के सब ठेकेदार फ्रोफेसर नाराज़ थे. अपने 14 साल विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के इंटरविवों की कभी फुर्सत मिली तो एंथॉलॉजी लिखूंगा. खैर भूमिका लंबी हो गयी. मैं वाकई सौभाग्यशाली मानता हूं पेशे से भी शिक्षक बन कर, तेवर से तो वैसे भी था. मेरे ज्यादातर विद्यार्थी मुझे गर्व का मौका देते हैं. मैं बड़े आत्मविश्वास से कहता हूं मेरे छात्र थोड़ा अलग होंगे तर्कशील नैतिकता के मामले में, और अपवाद नियम की पुष्टि करते हैं. कई बार मजाक में सोटता हूं कि थोड़ा रंग-ढंग ठीक कर लेता तो 10-12 बैच ज्यादा स्टूडेंड्स 'बिगाड़ता'. लेकिन अब सोचने से क्या फायदा? हा हा. हर शौक की कीमत चुकानी पड़ती है, झुककर चलने वाली दुनियां मे सर उठाकर चलने की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी. लेकिन सिर उठाकर चलने के सुख और फक्र की कोई भी कीमत कम ही है. मेरा मानना है कि पढ़ाने का सुख ही असली मजदूरी है, वेतन बोनस. ज्यादातर अभागे हैं बोनस के लिए ही काम करते हैं, वेतन छोड़ देते हैं. मुझे लगता है यदि 20-25% शिक्षक भी शिक्षक होने का महत्व समझ लें तो क्रांति का आधा रास्ता वैसे ही प्रशस्त हो जाये. लेकिन जैसा मैंने कहा, ज्यादातर अभागे हैं, नौकरी करते हैं. अपने सभी छात्र मित्रों को शुभ कामनाएं. कई और काम हैं लेकिन आज सोचा शिक्षक दिवस पर ही लिख दूं. और कई चीजें लिखना चाहतान हूं. अलग पोस्ट में.

Footnote 2 (Hindu College 2008)

Surya Swetabhn Your batch in Hindu College. Do you remember the notes on Rousseau and Marx I wrote for your batch, while giving to new batches, I tell them this was prepared for 2008 batch. I keep sharing them from the blog. The trip had been marvelous, rather the best, we learnt and unlearned so much, the trekking was marvelous. Do you remember the "Binsar night of Political Economy", When Suksham (practicing now in Himachal High Court) began sharing his new information from recently read Manifesto? If you remember,in that room, everyone, incidentally was from Political Economy group except poor Shagufta Suheily, who too enjoyed the almost overnight discourse and all the mimics of who not? Your batch benefited most in terms of help in writing skills through thorough edit checking the assignments and term papers. Sometimes writing in red would overshadow that in blue yet with comment of good, can be made better. Arunakshi (now in UP Civil Services) told me that she has got few of the assignments laminated. Subhash (now in BSF) had told me that someone asked him that how could he get 7.5/10 with so many corrections. Remember you all with lots of affection and proud of all of you. Wish that all of you create new heights in your life and work.

Marxism 18

In India class and class overlap this was neither taken note by Coms and nor by identity politics. If we take Engel's notion of Marxist as one who reacts to a situation as Marx would have, not the one who quotes him or Marx, Ambedar is a Marxist. Contrary to Marx's expectations colonialism was not interested in smashing the Asiatic Mode but used it for plunder. There was no real bourgeois democratic movement against the class qualification that was smashed in Europe during Renaissance. Ambedkar reacted, in my opinion, as Marx would have in the situation.

Sunday, September 4, 2016

लल्ला पुराण 181 (शिक्षा और ज्ञान 85)

लखनऊ विवि में आइसा की महिला छात्र नेता के साथ एबीवीपी के नेताओं की अश्लील अभद्रता की निंदा करते हुए एक मित्र ने पूछा कि लेकिन आइसा मजदूरों की हड़ताल के समर्थन में छात्रों को क्यों लामबंद कर रही थी? उस पर:

जी, जगे जमीर का छात्र हमेशा मजदूरों के साथ खड़ा होता है. छात्र-मजदूर एकता आपकी समझ में कैसे आएगी? छात्रों के नाम भगत सिंह का संदेश पढ़ें. पंजाब में जारी दलितों के जमीन आंदोलन की शुरुआत छात्रों ने की. इस पर जनहस्तक्षेप की रिपोर्ट ईपीडब्लू, काउंटर करेंट समेत कई जगहों पर छपी है. मेरे ब्लॉग में भी है. अब आप पूछेंगे कि मैं तो प्रोफेसर हूं, दलितों के भूमि आंदोलन की फैक्ट फाइंडिंग क्यों किया? हम लोगों ने 1978 में डीटीसी के किराए में वृद्धि के खिलाफ महीने भर बोट क्लब पर आंदोलन चलाया. लाठी गया, गिरफ्तारी दी. शायद पहली बार ऐसा हुआ कि किराया वृद्धि बिल्कुल वापस हुई. दिल्ली विवि के एक छात्र ने पूछा कि जब साढ़े बारह रुपये के पास में जब हम पूरी दिल्ली घूम सकते हैं तो किराया वापसी के लिए क्यों जान दे रहे हैं. मैंने जवाब दिया था, हमारे लिए दुनिया की जनसंख्या एक से अधिक है. जहां तक एबीवीपी वालों की बीभत्स व्यवहार की बात है तो मोदी के आने के बाद से लंपटता इसका स्थाई भाव बन गया है.

बेतरतीब 11

Vijender Masijeevi मैं तो आपातकाल में 'भूमिगत' अस्तित्व की संभावनाओं की तलाश में दिल्ली आने बाद अगले 9 साल आजीविका के लिए गणित पर निर्भर रहा. मेरा पहला ट्यूसन का विद्यार्थी मेरे दोस्त का दोस्त था. मैं 21-22 का था वह 17-18 का, पहले ही दिन हम दोस्त हो गए. स्कूल की परीक्षाओं में उसे 40-45% मिलते थे. पहले ही दिन बोला, "Yaar! maths is such a dry and boring subject." उस समय जो फौरी जवाब मुंह से निकला, वह मैं हर पहली क्लास में बोलता था, "Mathematics is that branch of knowledge, which trains our mind for clear thinking and reasoning. " उस दिन Coordinate Geometry शुरू करना था. बोला, "and coordinate geometry is most boring." मेरे मुंह से निकला, "Geometry is that branch of mathematics that trains our mind for clearer thinking and reasoning." क्षमा करना यार मैं तो आत्मकथा सा लिखने लगा. खैर, उसके बाद के पहले होम एक्जाम में उसके 80 से अधिक आए और फाइनल में अविश्वसनीय 97%. 1981-85 के दौरान मैं जेयनयू में राजनीति पढ़ते-करते हुए, डीपीयस (आरकेपुरम्) में गणित पढ़ाता था तो हर पहली क्लास में यही डायलॉग बोलता था. दर-असल ज्यादातर गणित के शिक्षक खुद फार्मूला रट कर इम्तहान पास किए होते हैं, विद्यार्थियों को भी अवधारणा की व्याख्या की बजाय महज सवाल हल करना सिखाते हैं. बुढ़ापे की आवारागर्दी खतरनाक होती है, वह भी बौद्धिक! सोचा था 2 वाक्य लिखने को और पोथा लिखने लगा. तुम दोनों एक दिन बच्चों से मुझे मिला दो. स्कूल में आश्चर्य से सोचता था कि कोई किसी और विषय में फेल हो जाए तो समझ आता है, कोई गणित जैसे सीधे-सरल विषय में कैसे फेल हो सकता है? मामला 'जाके पैर न फटै बेवाई' वाला था. 'गदहिया गोल' (प्री-प्राइमरी) में एक लड़के ने 20 से ऊपर का पहाड़ा रट लिया. मेरी रटंत क्षमता शुरू से ही खराब रही है. मुझे एक ट्रिक मालुम हो गयी और मैं 33-34; 76-77.... किसी भी संख्या का पहाड़ा सुना सकता था. हमारे शिक्षक को क्या लगा कि मुझे गदहिया गोल से 1 में प्रोमोट कर दिया. डिप्टी साहब (यसडीआई) के मुआयने में 5 वाले एक सरल सा अंकगणित का सवाल नहीं बता पाए (कक्षा 4 और 5 की कक्षाएं एक ही कमरे में होती थी), मैंने बता दिया और 4 से 5 में प्रोमोट हो गया, नतीजतन हाई स्कूल की परीक्षा में न्यूनतम आयु के लिए मास्साहब ने ज्यादा उम्र लिख दी. (आत्म-प्रशस्ति में तो नहीं फंस रहा हूं? लेकिन अब क्या, अब तो फंस ही गया. ) डीपीयस के बच्चे बहुत दिन तक मुझे टीचर मानने को राजी ही नहीं थे. उन्हें थ्री-पीस में सजे-धजे और अनुशासन के आडंबर वाले शिक्षकों की आदत थी, यहां जेयनयू का कुर्ता-जीन्स वाला दोस्ताना लहजे का 'टीचर'? लेकिन एक बार मान लिया तो मुझे ही टीचर मानते थे. मैं तो इतने बड़े स्कूल में 11-12वीं के 3 सेक्सन पढ़ाता था, लेकिन सब मुझे टीचर मानते थे. कइयों ने फेसबुक पर संपर्क किया. 1985 में डीपीयस छोड़ने के बाद तय किया कि जब तक भूखों मरने की नौबत न आए, गणित का इस्तेमाल धनार्जन के लिए नहीं करूंगा, और आई नहीं. अब तो गणित की सारी किताबें बांट चुका हूं, 2-4 बटी हैं किसी सुपात्र के मिलते ही दे दूंगा. नतीजतन 31 साल से गणित की कोई पुस्तक नहीं पलटा, अब कभी वक़्त नहीं मिलेगा. बच्चों के गणित से डर का कारण, मुझे लगता हैः 1. मां-बाप बचपन से गणित का ट्यूसन लगाकर बच्चों के दिमाग में गणित का हौव्वा खड़ा कर देते हैं. 2. शिक्षक बच्चों को अवधारणाएं स्पष्ट न कर सवाल हल करना सिखाते हैं. मॉफ करना, थोड़ा नॉस्टैल्जिक हो गया.

शिक्षा और ज्ञान 84 (गणित)

Vijender Masijeevi मैं तो आपातकाल में 'भूमिगत' अस्तित्व की संभावनाओं की तलाश में दिल्ली आने बाद अगले 9 सात आजीविका के लिए गणित पर निर्भर रहा. मेरा पहला ट्यूसन का विद्यार्थी मेरे दोस्त का दोस्त था. मैं 21-22 का था वह 17-18 का, पहले ही दिन हम दोस्त हो गए. स्कूल की परीक्षाओं में उसे 40-45% मिलते थे. पहले ही दिन बोला, "Yaar! maths is such a dry and boring subject." उस समय जो फौरी जवाब मुंह से निकला, वह मैं हर पहली क्लास में बोलता था, "Mathematics is that branch of knowledge, which trains our mind for clear thinking and reasoning. " उस दिन Coordinate Geometry शुरू करना था. बोला, "and coordinate geometry is most boring." मेरे मुंह से निकला, "Geometry is that branch of mathematics that trains our mind for clearer thinking and reasoning." क्षमा करना यार मैं तो आत्मकथा सा लिखने लगा. खैर, उसके बाद के पहले होम एक्जाम में उसके 80 से अधिक आए और फाइनल में अविश्वसनीय 97%. 1981-85 के दौरान मैं जेयनयू में राजनीति पढ़ते-करते हुए, डीपीयस (आरकेपुरम्) में गणित पढ़ाता था तो हर पहली क्लास में यही डायलॉग बोलता था. दर-असल ज्यादातर गणित के शिक्षक खुद फार्मूला रट कर इम्तहान पास किए होते हैं, विद्यार्थियों को भी अवधारणा की व्याख्या की बजाय महज सवाल हल करना सिखाते हैं. बुढ़ापे की आवारागर्दी खतरनाक होती है, वह भी बौद्धिक! सोचा था 2 वाक्य लिखने को और पोथा लिखने लगा. तुम दोनों एक दिन बच्चों से मुझे मिला दो. स्कूल में आश्चर्य से सोचता था कि कोई किसी और विषय में फेल हो जाए तो समझ आता है, कोई गणित जैसे सीधे-सरल विषय में कैसे फेल हो सकता है? मामला 'जाके पैर न फटै बेवाई' वाला था. 'गदहिया गोल' (प्री-प्राइमरी) में एक लड़के ने 20 से ऊपर का पहाड़ा रट लिया. मेरी रटंत क्षमता शुरू से ही खराब रही है. मुझे एक ट्रिक मालुम हो गयी और मैं 33-34; 76-77.... किसी भी संख्या का पहाड़ा सुना सकता था. हमारे शिक्षक को क्या लगा कि मुझे गदहिया गोल से 1 में प्रोमोट कर दिया. डिप्टी साहब (यसडीआई) के मुआयने में 5 वाले एक सरल सा अंकगणित का सवाल नहीं बता पाए (कक्षा 4 और 5 की कक्षाएं एक ही कमरे में होती थी), मैंने बता दिया और 4 से 5 में प्रोमोट हो गया, नतीजतन हाई स्कूल की परीक्षा में न्यूनतम आयु के लिए मास्साहब ने ज्यादा उम्र लिख दी. (आत्म-प्रशस्ति में तो नहीं फंस रहा हूं? लेकिन अब क्या, अब तो फंस ही गया. ) डीपीयस के बच्चे बहुत दिन तक मुझे टीचर मानने को राजी ही नहीं थे. उन्हें थ्री-पीस में सजे-धजे और अनुशासन के आडंबर वाले शिक्षकों की आदत थी, यहां जेयनयू का कुर्ता-जीन्स वाला दोस्ताना लहजे का 'टीचर'? लेकिन एक बार मान लिया तो मुझे ही टीचर मानते थे. मैं तो इतने बड़े स्कूल में 11-12वीं के 3 सेक्सन पढ़ाता था, लेकिन सब मुझे टीचर मानते थे. कइयों ने फेसबुक पर संपर्क किया. 1985 में डीपीयस छोड़ने के बाद तय किया कि जब तक भूखों मरने की नौबत न आए, गणित का इस्तेमाल धनार्जन के लिए नहीं करूंगा, और आई नहीं. अब तो गणित की सारी किताबें बांट चुका हूं, 2-4 बटी हैं किसी सुपात्र के मिलते ही दे दूंगा. नतीजतन 31 साल से गणित की कोई पुस्तक नहीं पलटा, अब कभी वक़्त नहीं मिलेगा. बच्चों के गणित से डर का कारण, मुझे लगता हैः 1. मां-बाप बचपन से गणित का ट्यूसन लगाकर बच्चों के दिमाग में गणित का हौव्वा खड़ा कर देते हैं. 2. शिक्षक बच्चों को अवधारणाएं स्पष्ट न कर सवाल हल करना सिखाते हैं. मॉफ करना, थोड़ा नॉस्टैल्जिक हो गया.

ये जो सीधी-सादी दिखती लड़की है


बेटी की एक तस्वीर पर

ये जो सीधी-सादी दिखती लड़की है

जोर-ज़ुल्म की हो बात अगर 
शेरनी सी दहाड़ती है
चेहरे पर छिटकी है जो विनम्र मुस्कान
छिपा है उसमें फौलादी आत्म सम्मान
देता है बाप अगर कभी बर्दाश्तगी प्रवचन
याद दिलाती उसे नाइंसाफी की मुखालफत का वचन
सिखाओगे ग़र दो साल की बच्ची को जंग-ए-आजादी का गाना
कैसे लिखेगी वो समझौतों का अफसाना?
सिखाओगे बचपन में ग़र मेहनतकश के हक़ का तराना
कैसे लिखेगी वो निज़ाम-ए-ज़र की शेनां?
कहोगे ग़र उससे कि सवाल-दर-सवाल है ज्ञान की कुंजी
कैसे संभाल सकती है वो किसी परंपरा की पूंजी?
सवाल-दर-सवाल की पड़ जाती है जब आदत
कैसे कर सकती है किसी 'ईश' की इबादत?
कर देती बाप को इस बात से लाजवाब
लगाओगे पेड़ बबूल का कहां से फलेगा वो आम जनाब?
(कलम का आवारगी में 'धृतराष्टत्व' का भूत)

(ईमिः 04.09.2016).....

यह किस भारत माता का बेटा है?

यह किस भारत माता का बेटा है
अपने से अधिक ईंटों का भार जो ढोता है?
करता है जिसका बचपन ईंटा-गारा का काम
भारत भाग्य विधाता को क्या मालुम है इसका नाम?
ढोते-ढोते बोझ आजाएगा बुढ़ापा
कर नहीं पाएगा यह जवानी का स्यापा
था सरकार का 10 साला संपूर्ण साक्षरता का मिशन
जिसे हासिल किया चीन ने महज कुछ सालों में
चल रहा है यहां आज भी साक्षरता मिशन
है इसका तो बोझ से दुहरा बदन
और आंखों मे तकलीफ का उमड़ता समंदर
बंदानवाज़ कहेंगे इसे सीखना भारोत्तोलन का हुनर
यह किस भारत माता का बेटा है
जिसका बचपन भूख के आगे लेटा है?
(ईमिः04.05.2016)

लल्ला पुराण 180 (शिक्षा और ज्ञान 83)

Surya Shukla "आपने जेयनयू में देश द्रोही पाल रखे थे, कभी बताया क्या?" जो बात विश्वविदित है उसे बताना क्या? इन नवजवानों को पालने जाने वाले नहीं, इतिहास रचने वाले हैं. जेयनयू एक विचार बन चुका है, जो तेजी से फैल रहा है. सभी कैंपस जेयनयू बन रहे हैं, इलाहाबाद समेत. लेकिन जो ब्राह्मणवादी तो बिना बताए की कथा क्या है, तीन घंटे सत्यनारायण की कथा का महात्म्य बताते हैं, विचार, उन ब्राह्मणवादियों की समझ से परे हैं, वहां पहुंच कर संघी भी चिंतनशील बन जाता है, जेयनयू के एबीवीपी पदाधिकारियों ने इस्तीफा देने के साथ मनुस्मृति का दहन किया. कितनी बार कहा किसी शब्द का इस्तेमाल परिभाषा से करिए. देशद्रोही 2-4 वाक्यों में परिभाषित करिए. जेयनयू के जिन बच्चों को देशद्रोही कह रहे हैं, वे क्रांतिकारी स्कॉलर है. आधा मिनट नहीं टिक पायेंगे इन क्रांतिकारियों के समक्ष. ये भगत सिंह की परंपरा के और अंबेडकर की परंपरा के लड़के-लड़कियां हैं. इन्हे न तो संघी लंपटता रोक सकती है न जेल तोड़ सकती है. फक्र है कि दोनों ही उदीयमान इतिहासकारों, Anirban Bhattacharya & Umar Khalid, नामित सारे छात्र-छात्राएं मेरे अज़ीज़ हैं. अनिर्बन सभी मुद्दों पर कम-से-कम उतना ही मुखर है जितना कि उमर. लेकिन आप लोगों के संघी दिमाग में जो ब्राह्मणवादी कीड़ा जड़ जमाकर बैठा है, सारे मुझसे उमर के ही "देशद्रोह" का हिसाब मांग रहे थे, अनिर्बन का नहीं. जेल में भी पुलिस ने अनिर्बन को तोड़ने की कोशिस की थी. लेकिन क्रांतिकारी टूटता नहीं, सिर्फ शहीद होता है. याद है फांसी के पहले जब ग्रंथी भगत सिंह के पास अंतिम समय में गुरु ग्रंथ साहब पर मत्था टिकवाने गया था? काबिले तारीफ है भगत सिंह की ग्रंथी को विनम्र फटकार. क्रांतिकारी स्पेनिश कवि लोर्का फासीवादी शूटरों की आंख में आंख डालकर हंसते हुए फासीवाद के विनाश के नारे लगा रहे थे. लेकिन संघी इतिहासबोध तथ्यपरक नहीं अफवाहजन्य होता है.