Thursday, May 26, 2016

बीयचयू के आंदोलनकारी छात्रों के नाम

सुनो निक्करधारी, ज्ञानद्रोही गर्दभ-चारण त्रिपाठी
अब नहीं चलेगी बीयचयू में ब्राह्मणवाद की परिपाटी
चलाओ विद्रोही युवा उमंगों पर कितनी ही गोली-लाठी
पैदा ही करती रहेगी कबीर-ओ-बुद्ध काशी की माटी
मांगने निकला है वंचित तपका पढ़ने का अधिकार
समझ सके जिससे वह ज्ञान के फरेब का सनातन सार
होगे नहीं जब तक शेरों के अपने इतिहास कार
करता रहेगा इतिहास शिकारी की जय-जयकार
निकल पड़े हैं शेर बनने खुद का इतिहासकार
मच गया शिकारियों के खेमे में भयंकर हाहाकार
उमड़ा है बनारस में जो युवा-उमंगों का जनसैलाब
कर देगा बजरंगी लंपटों का राष्ट्रवादी ढोंग बेनकाब
पुणे से उठी चिंगारी ब्राह्मणवाद के खिलाफ
आग बन गयी पहुंचते-पहुंचते हैदराबाद
दावानल बन गई पहुंची जेयनयू जब
बन गया जेयनयू विश्वविद्यालय से विचार तब
कहा था तुमने बीयचयू को जेयनयू न बनने दोगे
मगर विचार को तुम कैसे बंदूक से रोक लोगे?
पहुंच चुका है बीयचयू जेयनयू का विचार
लेके रहेंगे छात्र पढ़ने का अनंत अधिकार
पैदा हों जिससे तथ्यपरक तार्किक विचार
करोगे प्रतिरोध पर जितने भयानक वार
उतनी ही भीषणता से फैलेंगे विप्लवी विचार
खंड-खंड हो जायेगा ब्राह्मणवादी अहंकार
(बस यूं ही)
आंदोलनकारी छात्रों को जय भीम, लाल सलाम
(ईमि: 27.05.2016)

Wednesday, May 25, 2016

लल्ला पुराण 170

Atul Srivastava /Arti Srivastava अनायास विषयांतर के लिए क्षमा. उस समय आभासी दुनिया से बाहर के किसी संदर्भ में स्वस्फूर्त तुकबंदी हो गयी. क्षेपक समझ नज़रअंदाज करें.@Surjit Srivastav मित्र मेरे कमेंट को निजी न लें. संस्कार की सांस्कृतिक विरासत में मिले सामाजिक मूल्यों को हम अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं. जब वे टूटते हैं तो हमें कल्चरल शॉक मिलता है. यौनकुंठाओं वाले ज्यादातर लोग उम्र के ब्रैकेट के परे, सार्जनिक रूप से यौन सुचिता का ढोंग करते हैं तथा जेयनयू की वीरांगनाओं के लिए मुक्त-प्रेम को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं. मैंने विवाह के समझौता तथा संस्कार की बात पर कमेंट किया था. विवाह तथा परिवार को मैं एक संकीर्ण संरचना मानता हूं. मैंने 20 साल पहले ENCOUNTER जर्नल में एक लेख 'Western Philosophy and Indian Feminism में लिखा था, " ...... thus family became the first institution in the process of social development and also first institution to breed unfreedom and inequality." परिवार का जनतांत्रिककरण तथा रिश्तों के प्रति मिल्कियत बोध से मुक्ति इस असमानता तथा वर्चस्व से मुक्त समाज की तरफ एक कदम होगा. अलख निरंजन अगर आपका इशारा मेरी तरफ इशारा है तो मैं तो अक्सर अति-अल्प मत में होता हूं, क्योंकि मेरी बातें आत्मसात पितृसत्तात्मक-ब्राह्मणवादी मुल्यों पर चोट करती हैं.न तो मैं शरीफ हूं न शरीफाई के सर्टिफिकेट/ठप्पे बाटता हूं. 2 विश्वविद्यालयों से छात्र के रूप में निष्कासित हूं तथा कई नौकरियों से. एक शैक्षणिक दुर्घना से स्थाई नौकरी मिल गयी जिससे निकालना मुश्किल प्रक्रिया है. युवाओं में भी पचासेतरों की यौनकुंठा दृष्टिगत होती है. इस कुंठा से निज़ात का एक ही तरीका है सेक्सुअल्टी की मर्दवादी अवधारणाओं से उबरकर लड़कियों को लड़की से पहले एक समान इंसान मानें, देखिए कितनी अच्छी दोस्त होती हैं लड़कियां, अच्छे पुरुष दोस्तों की ही तरह. 1987 में लिखे एक पेपर का लिंक दे रहा हूं जो परोक्ष रूप से विषय से संबंधित है. पढ़ें तो आभारी रहूंगा.

कविता लिखने का मन


कहने-करने की आज़ादी ले रही हैं मेरी बेटियां
मांग कर नहीं छीनकर
हक़ मानने से नहीं लड़ने से हासिल होता है
हक़ के लिए लड़ रही हैं ये बेटियां
कंगन-पाजेबों की बेड़ियां तोड़ रही हैं ये बेटियां
आंचल को परचम बना रही हैं बेटियां
उठा रही हैं प्रज्ञा का शस्त्र ये बेटियां
कर रही हैं मर्दवाद को ध्वस्त ये बेटियां.......

बाद में पूरा करूंगा
मर्दवाद को सांस्कृतिक संत्रास दे रही हैं मेरी बेटियां

Tuesday, May 24, 2016

बीयचयू के जुझारू साथियों को जयभीम लाल सलाम

बीयचयू के जुझारू साथियों को जयभीम लाल सलाम
ये चाहते हैं उतना ही पढ़ो जितना पढ़ाया जाय
ज्यादा पढ़कर बीयचयू जेयनयू न बन जाय
सुनो नमस्ते सदा वत्सले रटने वाले तोते
जो भी नाम है तुम्हारा
कितने छात्रों का निष्कासन करोगे
कितने उमरों को देशद्रोही कहोगे
कितने रोहितों को मारोगे
कब तक बीयचयू को जेयनयू बनने से रोकोगे
जोयनयू एक विचार है
विचार मरता नहीं
फैलता है और इतिहास रचता है
शुरुआत को न्योत दिया है तुमने
अपने अंत की
ललकार कर युवा उमंगों को
लड़ो साथियों
एक नया इतिहास रचने के लिए
लड़ो साथियों
कुछ भी नहीं मिलता खैरात में
हक़ के एक-एक इंच के लिए लड़ना पड़ता है
लड़ों साथियों
सोच की आजादी के लिए
लड़ो साथियों

Sunday, May 22, 2016

ज्ञान, शिक्षा तथा वर्चस्व

ज्ञान, शिक्षा तथा वर्चस्व
ईश मिश्र
    
      हर ऐतिहासिक युग में शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, यानि समाज की भौतिक शक्तियों पर जिस वर्ग का शासन होता है वही बौद्धिक शक्तियों पर भी शासन करता है. भौतिक उत्पादन के शाधन जिसके नियंत्रण में होते हैं, बौद्धिक उत्पादन के साधनों पर भी उसी का नियंत्रण रहता है, जिसके चलते सामान्यतः बौद्धिक उत्पादन के साधन से वंचितों के विचार इन्हीं विचारों के आधीन रहते  हैं.   (कार्ल मार्क्स, जर्मन विचारधारा)
      कार्ल मार्क्स का यह कथन आज नवउदारवादी संदर्भ में कम-से-कम उतना ही प्रासंगिक है जितना 1845 में इसके लिखे जाने के वक्त. शासक वर्ग का विचार ही युग का विचार या युग चेतना होता है. युगचेतना मिथ्या चेतना होती है क्योंकि यह एक खास संरचना को सार्वभौमिक तथा अंतिम सत्य के रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करती है. शिक्षा संस्थान बौद्धिक उत्पादन के सबसे महत्वपूर्ण कारखाने हैं. 1995 में विश्वबैंक ने शिक्षा को एक व्यापारिक सेवा के रूप में गैट्स (जनरल ऐग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड सर्विसेज़) में शामिल कर लिया है. वैसे सिद्धांततः मनमोहन सरकार भी इस दस्तावेज पर दस्तखत करने को सिद्धाततः सहमत थी लेकिन किया मोदी सरकार ने. दोनों विश्व बैंक की मातहदी में एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी हैं. शासक वर्ग समाज के मुख्य अंतरविरोध की धार को कुंद करने के लिए राज्य के वैचारिक उपकरणों से अपने आंतरिक अंतरविरोधों को समाज के मुख्य अंतरविरोध के रूप में प्रचारित करता है. उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमला गैट्स को लागू कर शिक्षा को पूरी तरह कॉरपोरेटी भूमंडलीय  पूंजी के हवाले करने की भूमिका है. गैट्स के विभिन्न प्रावधानों की चर्चा की गुंजाइश (स्कोप) यहां नहीं है लेकिन खेल के सम मैदान (लेबेल प्लेइंग फील्ड) की संक्षिप्त चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी. यानि अगर सरकार दिल्ली विश्वविद्यालय को अनुदान देती है तो लब्ली विश्वविद्यालय को भी दे नहीं तो दिल्ली विश्वविद्यालय का भी अनुदान बंद करे. जब तक सार्वजनिक वित्त पोषित संस्थान रहेंगे तो निजी खिलाड़ियों के ‘खुले’ खेल में दिक्कत होगी. दिल्ली विश्वविद्यालय तथा अन्य विश्वविद्यालयों के शिक्षक मानव संसाधन मंत्रालय और रीढ़विहीन विश्ववियालय अनुदान आयोग के तुगलकी फरमानों के खिलाफ महीनों से आंदोलित हैं.
      चुनावी ध्रुवीकरण के गुजरात प्रयोग के महानायक नरेंद्र मोदी के केंद्र में सत्ता में आते ही आरयसयस ने अपने संसदीय और “असंसदीय” घटकों के माध्यम से उच्च शिक्षा तथा उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमला बोल दिया. भारत को माता मानने वाले को ही शिक्षित मानने वाली, मानव संसाधन मंत्री, स्मृति इरानी ने शिक्षा में आमूल परिवर्तन के संकेत दिए हैं. हिंदुत्व के प्रथम परिभाषक वीडी सावरकर मातृभूमि की नहीं पितृभूमि की बात करते हैं. भारत को पिता मानने वाले सावरकर को ये शिक्षित मानती हैं कि नहीं, वही जानें. सरकार की मौजूदा नीतियां शिक्षा के भगवाकरण की द्योतक हैं जैसा कि राजस्थान के शिक्षामंत्री ने साफ साफ कहा है कि उनकी सरकार शिक्षा के भगवाकरण के लिए कटिबद्ध है. आगरा में विश्व हंदू परिषद के मंच से मुसलमानों के सफाया की गुहार लगाने के लिए चर्चा में आए केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री ने साफ साफ कह दिया, “हिंदुस्तान में नहीं तो क्या पाकिस्तान में भगवाकरण होगा?”  यहां मकसद भगवाकरण की अंतर्वस्तु की व्याख्या नहीं है, वह एक अगल चर्चा का विषय है. सरकार की नई शिक्षा नीति तथा इस सरकार का शिक्षा संस्थानों में स्थापित जनतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला भी इस का मकसद नहीं है, वह भी एक अलग चर्चा का विषय है. इस लेख का विचार इस जिज्ञासा से उभरा कि क्यों सभी ऐतिहासिक युगों में शासक वर्ग और उनके ‘जैविक’ बुद्धिजीवी (चारण) ज्ञान को शिक्षा के माध्यम से एक खास ढांचे में परिभाषित करते हैं और शिक्षा पर एकाधिकार कायम करते हैं? क्या शिक्षा और ज्ञान मे कोई समानुपाती रिश्ता है? इन्ही सवालों के जवाब की तलाश में यहां और शिक्षा तथा शासक वर्ग के वैचारिक वर्चस्व के अंतर्सबंधों पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में एक चर्चा का प्रयास किया गया है. 
लगता है ज्ञान तथा शैक्षणिक डिग्री में समानुपातिक संबंधों की मान्यता के चलते भारत के प्रधानमंत्री तथा मानव संसाधन मंत्री की डिग्रियां विवाद के घेरे में हैं. आम आदमी पार्टी के कुछ नेता दिल्ली विश्वविद्यालय से मोदीजी और स्मृति इरानी जी के पंजीकरण तथा परीक्षा संबंधित दस्तावेज मांगा है. अखबारों की खबरों से पता चला कि दिल्ली विश्विद्यालय  को समृति इरानी के दस्तावेज मिल ही नहीं रहे. अरुण जेटली ने को जो डिग्री और मार्क्सशीट मीडिया को दिखाया उनके नामों और रोल नंबरों में विसंगतियां हैं. गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति ने मीडिया में मोदी जी की संपूर्ण राजनीतिशास्त्र (एंटायर पोलिटिकल साइंस)में एमए की डिग्री पेश की. यह अलग बात है दुनिया के किसी भी विश्वविद्यालय में इस नाम का विषय नहीं दर्ज है. इस विवाद पर मोदी जी का मन मौन है. यहां मकसद इनकी शैक्षणिक योग्यता पर चर्चा नहीं है, न ही इस बात पर कि झूठा हलफनामा भारतीय दंड संहिता की किस धारा में आता है. अगर उन्होंने सचमुच हलफनामें में सच बोला है तो अपनी डिग्रियां व मार्क्सशीट सार्वजनिक क्यों नहीं करते? यह भी इस लेख की चर्चा का विषय नहीं है. मोदी जी के राजनैतिक कौशल को कोई चुनौती नहीं दे सकता क्योंकि गोधरा के प्रायोजन से शुरूकर दिल्ली के तख्त की राजनैतिक यात्रा का  वृतांत उसकी काट के रूप में मौजूद है. इस विवाद के जिक्र का यहां मकसद महज इस बात की ओर इंगित करना है कि इन्हें अपने ज्ञान की वैधता के लिए शैक्षणिक योग्यता का तथाकथित फर्जी बयान क्यों जरूरी लगा? क्या शिक्षा और ज्ञान के अंतःसंबध इतने गहन हैं? क्यों यह सरकार एक-एक कर उच्च-शिक्षा परिसरों को साम-दाम-भेद-दंड से खास रंग में रंगना चाहती है? क्यों सरकार तथा संघ के सभी भोपू नारों से देशभक्ति और देशद्रोह परिभाषित करना चाहते है? इतिहास के इस अंधे मोड़ पर जब कॉरपोरेटी फासीवाद आक्रामक रूप से मुखर हो, इन सवालों पर विमर्श जरूरी हो गया है.
      फेसबुक पर एक अमरीकी ने एक पोस्टर शेयर किया था, “ट्रंप को रोकना समाधान नहीं है; समाधान उस शिक्षा प्रणाली को खारिज करना है, जो इतने ट्रंप समर्थक पैदा करती है.” देश में मोदी-भक्तों में उच्च-शिक्षितों की संख्या देखते हुए यही बात हमारी शिक्षा पद्धति पर भी लागू होती है. 2014 के चुनाव में दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों का बहुमत, विकासपुरुष के गुणगान कर रहा था. संस्थागत परिभाषा में प्रोफेसर सर्वोच्च ज्ञानी माना जाता है. जिससे भी पूछता था कि भाई, अपने आराध्य का एक गुण बता दीजिए जिसके चलते वह उन्हें देश का उद्धारक, दिव्य पुरुष लगते हैं? उनका वही जवाब होता था जो वास्तविक तथा फेसबुक जैसी आभासी दुनिया में बजरंगी लंपटों का. “16 मई को बताएंगे.” मुझे तरस आता था सर्वोच्च शिक्षित इन प्रोफेसरों पर कि सामाजिक विश्लेषण में एक प्रोफेसर तथा बजरंगी लंपट में कोई फर्क नहीं है क्या?” इस तरह का पूर्वाग्रह-दुराग्रह तथा कुतर्क ज्ञान हो सकता है क्या? यदि नहीं तो क्या शिक्षा और ज्ञान में कोई समानुपातिक संबंध है क्या?
ज्ञान तथा शिक्षा के अंतःसंबंधों के इतिहास पर दृष्टिपात के पहले आइए जरा कुछ सर्वोच्च शिक्षित समूहों पर एक उड़ती नज़र डालते हैं. अंधविश्वासों, धार्मिक पूर्वाग्रह-दुराग्रहों तथा सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मुहिम चलाने वाले डाभोलकर की हत्या का मुख्य आरोपी तवाड़े विशेषज्ञ डाक्टर है, जहालत से नफरत का मशीहा विहिप का नेता तोगड़िया भी डाक्टर है. कुछ साल पहले देहरादून के आईआईटी से उच्च शिक्षा प्राप्त एक व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी की हत्या के बाद लाश को बोटी-बोटी करके  रिफ्रीजरेटर में रख कर “वैज्ञानिक तरीके” किस्तों में ठिकाने लगाने की खबर छपी थी. इसी तरह की खबर दिल्ली में मुनिरका में रहने वाले एक अन्य  आईआईटियन के बारे में छपी थी. सर्वविदित है कि गुरात के दर्जनों आईपीयस/आईएयस अपनी संवैधानिक भूमिका निभाने की बजाय अमानवीय जनसंहार की देख-रेख और मोदी सरकार के इशारों पर, मंत्रियों के निजी चाकरों की तरह मासूमों को फर्जी मुठभेड़ों में मार रहे थे. य़े उदाहरण इस लिए दिया जा रहा है कि इन संसथानों तथा सेवाओं में, माना जाता है की देश की प्रतिभा की मलाई जाती है. जिस समाज की उच्चशिक्षित मलाई इतनी अमानवीय हो तो तलछट कैसा होगा, आसानी से समझा जा सकता है.   
ज्ञान का इतिहास शिक्षा के इतिहास से पुराना है. आदिम कुनबों तथा कबीलों में ज्ञानी माने जाने वाले ही कबीले का मुखिया, पुजारी या सेनापति होते थे. मानव जाति ने भाषा; आग; धातुविज्ञान; पशुपालन; विनिमय/विपणन तथा आत्मघाती युद्ध का ज्ञान किसी भी शिक्षा व्यवस्था के पहले ही हासिल कर लिया था.  प्रकृति से अनवरत संवाद से अर्जित अनुभवों तथा प्रकृति के साथ प्रयोगों और उनपर चिंतन-मनन से मनुष्य अनवरत रूप से ज्ञानाजर्न करता रहा है तथा इसके माध्यम से श्रम के साधनों का विकास. इसीलिए कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता बल्कि ज्ञान एत अनवरत प्रक्रिया है. हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को समेकित कर उसे आगे बढ़ाती है. निजी संपत्ति के आगाज के चलते कबीलाई ज़िंदगी के विखराव के दौर में, सामूहिक संपत्ति के बंटवारे में  ज्ञानियों की चतुराई से सामाजिक वर्ग-विभाजन के बाद वर्चस्वशाली वर्गों ने वर्चस्व की वैधता के लिए ज्ञान को अपने वर्गहित में परिभाषित किया. ज्ञान की इस सीमित परिभाषा को ही अंतिम ज्ञान के रूप में समाज पर थोपने के मकसद से ज्ञान को शिक्षाजन्य बना देशकाल के अनुकूल शिक्षा प्रणालियों की शुरुआत की. मार्क्स के उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि पूंजीवाद महज उपभोक्ता माल का ही नहीं, विचारों भी उत्पादन करता है. शासक वर्ग के विचारक, शासक विचारों को राज्य के वैचारिक उपकरणों से अंतिम सत्य बता युग के विचार के रूप में प्रतिष्ठित कर युग चेतना का निर्माण करते है. ये विचार प्रकारांतर से यथास्थिति को यथासंभव सर्वोचित तथा सर्वाधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था के रूप में स्थापित करते हैं.
इस तरह की मिथ्या चेतना का निर्माण जरूरी नहीं कि छल-कपट के भाव से किया जाता हो. प्रायः ये बुद्धिजीवी खुद को धोखा देते हैं, क्योंकि वे खुद मिथ्या को सच मानने लगते हैं. ये तमाम तर्क-कुतर्कों से बताते हैं कि पूंजीवाद ही सर्वोत्तम व्यवस्था है जिसमें हर किसी को योग्यतानुसार पुरस्कृत या दंडित किया जाता है. समाजवाद वगैरह के विकल्प अव्यावहारिक हैं और असफल साबित हो चुके हैं. जाने-माने मार्क्सवादी विचारक ऐतोनियो ग्राम्सी ने अपने वर्चस्व के सिद्धांत में खूबसूरती से दर्शाया है कि किस तरह युगचेतना के प्रभाव में, शोषित सहमति से शोषित होता है. शासक वर्गों के हाथ में संस्थागत शिक्षा युगचेतना के निर्माण का एक प्रमुख उपकरण है. यह ज्ञान को परिभाषित और सीमित करती है. प्राचीन कालीन यूनानी चिंतक अरस्तू शिक्षा की भूमिका नागरिकों में खास ढंग से, सोचने की आदत डालना तय करता है. इसीलिए सभी सरकारें शिक्षा के अनुकूलन का प्रयास करती हैं. आधुनिक शिक्षा में शैक्षणिक डिग्रियों को आम तौर पर किसी के ज्ञान का मान दंड मान लिया जाता है. उच्च शिक्षा प्राप्त भक्तों की भीड़ देख, लगता है कि पढ़े-लिखे अज्ञानियों का प्रतिशत काफी है.   
कृषि तथा शिल्प के विकास के साथ हमारे अर्धखानाबदोष ऋगवैदिक पूर्वजों की पशुपालन की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित हो गयी और वे स्थाई गांवों में रहने लगे. कुछ चतुर-चालाक लोगों ने श्रम विभाजन के नाम पर समाज को वर्गों(वर्णों) में बांटकर पवित्रतता-अपवित्रता के सिद्धांत गढ़कर जन्मजात बना दिया. वर्णाश्रम व्यवस्था के औचित्य तथा वैधता के लिए ग्रंथ लिखे गये जिन्हें ज्ञान का श्रोत मान लिया गया. अमानवीय वर्गविभाजन को दैविक रूप देकर शासक वर्गों (वर्णों) के हित में युगचेतना के निर्माण के लिए शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली शुरू हुई. समूचे प्राचीन तथा मध्ययुगीन इतिहास में, समतामूलक बौद्ध समुदायों को छोड़ दें तो शिक्षा तथा ज्ञान की दावेदारी शासितत वर्गों के लिए वर्जना ही रही है. मुग़लकाल के पहले शिक्षा का माध्यम संस्कृत थी. शिक्षा तथा उससे प्राप्त ज्ञान पर, ब्रह्मा की इच्छानुसार, ब्राह्मण पुरुषों का एकाधिकार था. जैसा कि मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है, शूद्रों तथा महिलाओं द्वारा शिक्षा का प्रयास घोर दंडनीय उपराध था. आम जन की भाषा पाली में लिखे बौद्ध ग्रंथों तथा बौद्ध संघों की जनतांत्रिक शिक्षा प्रणाली की मिशाल छोड़ दिया जाय, तो प्राचीन तथा मध्यकालीन इतिहास में शायद ही कहीं आमजन की भाषा ज्ञान की भाषा या शिक्षा का माध्यम रही हो. इंगलैंड में कैंब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों में क्रमशः 1892 और 1894 में विषय तथा शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को शामिल किया गया. गौर तलब है कि इंग्लैंड के निम्न वर्गों ने लंबे संघर्ष के बाद 1880 के दशक में मताधिकार हासिल किया था. भारत में अंग्रेजी शासक भाषा थी, इंग्लैंड में आमजन की. मुगलकाल में शासकीय भाषा फारसी होने से ज्ञान की भाषा बन गयी. पढ़े फारसी बेचे तेल, ये देखो कुदरत का खेलएक मशहूर कहावत है. चूंकि मध्य युग में सत्ता की वैधता का श्रोत ईश्वर था तथा धर्म वैधता की विचारधारा. धर्म-ग्रंथो में वर्णित ज्ञान ही ज्ञान था एवं धर्म ग्रंथों का अध्ययन ही शिक्षा का विषय. इसलिए पाठशालाओं तथा मदरसों पर क्रमशः ब्राह्मण पुजारियों तथा मौलवियों का नियंत्रण होता था. औपनिवेशिक शासन  में अंग्रेजी शिक्षा और ज्ञान की भाषा बन गयी. शिक्षा के सार्वभौमिक संवैधानिक प्रावधान से शिक्षा की ब्राह्मणवादी वर्जनाएं खत्म हुईं. राजकीय तथा केंद्रीय विश्वविद्यलयों तथा अन्य उच्च शिक्षा के संस्थानों में वंचित तपकों के लड़के-लड़कियां पहुंचने लगे. शिक्षा के जरिए ज्ञान पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती मिलने  लगी. विश्व बैंक की इच्छा के अनुकूल, शिक्षा को प्रकांतर से पूर्णरुपेण व्यावसायिक सामग्री बनाकर, सरकार की नई शिक्षा नीति नये तरह की वंचना तथा वर्जना की साज़िश है. सिर्फ अमीर ही शिक्षा प्राप्त कर सकेगा. गरीबों को भी शिक्षा चाहिए तो कर्ज़ लेकर पढ़े जिसे चुकाने के लिए भविष्य गिरवी रखना पड़ेगा.
 प्राचीन यूनान में प्लेटो की एकॆडमी की स्थापना के पहले अमीर नागरिक अपने बच्चों की शिक्षा की निजी व्यवस्था करते थे. प्लेटो की एकेडमी  पहला सार्वजनिक शिक्षा संस्थान था. प्लेटो के ग्रंथ रिपब्लिक में शिक्षा को इतना अधिक स्थान दिया गया है कि जन-संप्रभुता के सिद्धांत के प्रवर्तक 18वीं शताब्दी के दार्शनिक रूसो ने उसे शिक्षा पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ बताया है. करनी-कथनी के अंतरविरोध का दोगलापन पूंजीवाद की ही नहीं, वर्ग समाजों के इतिहास का अभिन्न हिस्सा रहा है. यह दोगलापन सर्वाधिक उसकी शिक्षा व्यवस्था में परिलक्षित होता है. एक तरफ प्लेटो कहता है कि शिक्षा का काम विद्यार्थी को बाहर से ज्ञान देना नहीं है. मष्तिष्क गतिशील है तथा उसके पास अपनी आंखें हैं. शिक्षा काम सिर्फ प्रकाश दिखाना है, यानि मष्तिष्क की गतिशीलता के लिए परिवेश (एक्सपोजर) प्रदान करना है. वह खुद-ब-खुद ज्ञान के विचारों की तरफ चुंबकीय प्रभाव से आकर्षित होगा. दूसरी तरफ जन्म से ही शुरू होने वाली शिक्षा व्यवस्था के लिए सख्त पाठ्यक्रम की योजना पेश करता है, सख्त सेंसरशिप से चुनी गयी विषय वस्तु के साथ. वर्णाश्रम की तर्ज पर उसके आदर्श राज्य में ज्ञानी राजा होगा. शिक्षा के माध्यम से श्रम(वर्ग) विभाजन होता है. ज्ञानी (दार्शनिक) राज तकरता है; साहसी सैनिक होता है तथा बाकी भिन्न-भिन्न आर्थिक उत्पादन का काम करते हैं. जैसे ब्रह्मा ने विभिन्न लोगों को अपने शरीर के विभिन्न अंगों से पैदा करके सामाजिक असमानता का निर्माण किया वैसे ही प्लेटो दार्शनिक राजा यह मिथ फैलाता है कि ईश्वर ने लोगों को सोना, चांदी और पीतल-तांबे जैसे तुच्छ धातुओं के गुणों के साथ पैदा किया है जो कि अपरिवर्तनीय है. सोने के गुण वाला दार्शनिक राजा होता है, चांदी वाला सैनिक और तांबे पीतल वाले आर्थिक उत्पादक. अंधकार युग कहे जाने वाले मध्ययुग में और जगहों की तरह यूरोप में भी सत्ता की वैधता का श्रोत ईश्वर था तथा धर्म उसकी विचारधारा. धार्मिक ज्ञान ही ज्ञान था तथा पादरी ही शिक्षक भी था और ज्ञान की परिभाषा का ठेकेदार भी. धार्मिक शिक्षा के ज्ञान के अतिक्रमण के अपराधमें वैज्ञानिक ब्रूनो को सन् 1600 में जिंदा जला दिया गया था. उनपर कैथलिक आस्था की कई बुनियादी मान्यताओं के खंडन के आरोप में 7 साल मुकदमा चला था. ज्ञान की स्थापित परिभाषा के उल्लंघन के आरोप में गैलेलियो का हश्र सर्वविदित है. रूसो को अपने उपन्यास एमिली में चर्च नियंत्रित शिक्षा की आलोचना के लिए फ्रांस छोड़कर भागना पड़ा. कहने का मतलब जो भी शासकवर्ग की ज्ञान की परिभाषा का अतिक्रमण करता है उसे दंडित किया जाता है, चाहे वह ब्रूनो, गैलेलिओ, रूसो हों या हैदराबाद विश्वविद्यालय या जेयनयू के शिक्षक-छात्र हों.       
नागपुर से संचालित मौजूदा सरकार ने सत्ता की बागडोर संभालते ही शिक्षा तथा जमीन के कानूनों में तब्दीली शुरू कर दिया. भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, राज्य सभा में बहुमत की कमी के चलते पारित नहीं हो सका. प्रस्तावित शिक्षा नीति को संसद में पेश किए बिना ही, आज्ञाकारी, “स्वायत्तविश्वविद्यालय आयोग (यूजीसी) तथा मानव संसाधन मंत्रालय के फरमानों के जरिए, उसके प्रावधानों को उच्च शिक्षा संस्थानों में लागू करना शुरू कर दिया है. इसके विरोध में शिक्षक तथा छात्र लगातार आंदोलित हैं. इस क्रम में यूजीसी पर 16 मई को हजारों शिक्षकों ने धरना दिया. फरवरी में, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ (जेयनयूयसयू) के नेतृत्व में महीनों से चल रहे ऑक्यूपाई यूजीसी आंदोलन को पटरी से उतारने के लिए, खोखले नारेबाजी में परिभाषित देशभक्ति का उन्माद खड़ा करके उच्च शिक्षा परिसरों पर धावा बोल दिया. रोहित वेमुला की शहादत से उपजे राष्ट्रव्यापी छात्रों के उभार तथा हैदराबाद तथा जेयनयू के शिक्षक-छात्र आंदोलन के दमन पर काफी लिखा जा चुका है, उस पर चर्चा इस लेख का विषय नहीं है.
1833 में, ब्रिटिश संसद में भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू करने के पक्ष में बोलते हुए मैकाले ने कहा था कि इससे (शिक्षा पद्धति लागू करने से) बिना अपनी भौतिक उपस्थिति के अंग्रेज 1,000 साल तक भारत पर बेटोक राज कर सकेंगे. कितनी सही निकली मैकाले की भविष्यवाणी. औपनिवेशिक साम्राज्यवाद तथा विश्वबैंक-अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश संचालित नवउदारवादी साम्राज्यवाद में यह फर्क है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन गये हैं. यानि ऐतिहासिक रूप से, शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान को शासक वर्ग हित के सीमित दायरे में परिभाषित कर उस पर एकाधिकार स्थापना से वर्चस्वशाली के वर्चस्व को बरकरार रखना और मज़बूत करना है. जैसा ऊपर मार्क्स के हवाले से कहा गया है, मार्क्स ने लिखा है कि पूंजीवाद माल का ही नहीं विचारों का भी उत्पादन करता है. युगचेतना के निर्माण तथा पोषण में शिक्षा की निर्णायक भूमिका होती है. ऐंतोनियो ग्राम्सी के शब्दों में, शिक्षा शासक वर्ग के वर्चस्व के लिए जैविक  एवं परंपरागत  बुद्धिजीवी पैदा करती है. मुख्यधारा से ही विद्रोही धाराएं भी निकलती हैं. इसके विपरीत विचारों के प्रसार को रोकने का शासक वर्ग हर संभव उपाय करता है, क्योंकि युगचेतना को चुनौती इसके वर्चस्व को चुनौती है.
विश्वबैंक के दबाव में भूमंडलीय पूंजी की हितपूर्ति में जो नीतिगत तथा संस्थागत परिवर्तन मनमोहन सरकार, शायद लोकलज्जा की वजह से, मंद गति से कर रही थी, मोदी सरकार ने बागडोर संभालते ही आक्रामक ढिठाई से आगे बढाना शुरू कर दिया. पिछली शताब्दी के तीसरे दशक के अंतिम सालों में शुरू हुए उदारवादी पूंजीवाद के संकट का श्रोत अतिरिक्त उद्पादन था. अधिकतम मुनाफे के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था में शोषणपूर्ण उत्पादन-विनिमय प्रणाली के चलते, कामगर वर्ग तबाही के कगार पर था तथा बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही थी. समाज के व्यापक तपके में क्रयशक्ति के अभाव से मांग-आपूर्ति का समीकरण गड़बड़ा गया और पूंजीवाद ध्वस्त होने की कगार पहुंच गया. इस संकट का समाधान निकला केंस के अर्थशास्त्र से जिसके सिद्धांतों पर अहस्तक्षेपीय संवैधानिक राज्य की जगह कल्याणकारी राज्य ने ली. कल्याणकारी राज्य की मिश्रित अर्थव्यवस्था में तर्कशील मानव संसाधन की आवश्यकता के लिए स्वायत्त उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना हुई तथा पहले से ही मौजूद संस्थानों को पुनर्गठित किया गया. पाठ्यक्रम की रूपरेखा तथा क्लासरूम की पढ़ाई से स्वतंत्र, विश्वविद्यालय उन्मुक्त चिंतन-मनन; विचार-विमर्श; शोध-अन्वेषण तथा अन्याय के विरुद्ध विचार-निर्माण के केंद्र भी हैं. इंसानी दिमाग के गतिविज्ञान के नियम पूरी तरह निर्धारित, नियंत्रित नहीं किये जा सकते. उन्हें पाठ्यक्रम की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता. इतिहास गवाह है कि शिक्षा की मुख्यधारा से ही विद्रोही, वैकल्पिक धाराएं भी प्रस्फुटित होती हैं.
जहां उदारवादी पूंजीवाद के संकट की जड़ में आमजन की क्रयशक्ति की कमी से, अतिरिक्त उत्पादित माल का संकट था, नवउदारवादी भूमंडलीय पूंजीवाद का संकट फायदेमंद, सुरक्षित निवेश के नीड़ की तलाश में अतिरिक्त पूंजी का है.  रीयल यॅस्टेट के बाद शिक्षा को निवेश का सर्वाधिक सुरक्षित क्षेत्र माना जा रहा है. कहने का मतलब कि वर्चस्व की हिफाज़त के लिए जैविक तथा पारंपरिक बुद्धिजीवी पैदा करने की शिक्षा की भूमिका में एक अतिरिक्त आयाम और जुड़ गया, व्यावसायिक आयाम. विश्वबैंक द्वारा इसे खरीद-फरोख्त की व्यापारिक सेवा के रूप में गैट्स  में शामिल करने के पहले से ही शिक्षा अत्यंत लाभकारी व्यवसाय बन चुका है. सारे कॉरपोरेट, खासकर रीयल यस्टेट के कारोबारी, ज्ञानके प्रसार में जी-जान से जुट गये हैं. यदि विश्वबैंक अपने मंसूबे में कामयाब रहा तो अन्य उपक्रमों की ही तरह शिक्षा का भी पूर्ण कॉरपोरेटीकरण हो जाएगा तथा उसकी अंतःवस्तु की बात छोड़िए, उच्च शिक्षा गरीब तथा दलित-आदिवासियों की पहुंच से ही बाहर हो जायेगी और शैक्षणिक कर्ज अतिरिक्त आवारा पूंजी का एक और ठिकाना बन जायेगै.   
 द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, राज्य के वैचारिक औजारों द्वारा साम्यवाद विरोधी अभियान के बावजूद अमेरिका के विश्वविद्यालय परिसर क्रांतिकारी विमर्श तथा गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभर रहे थे. शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ आपस में नहीं युद्ध कर रहे थे बल्कि अपने-अपने आंतरिक शत्रुओं”  से निपट रहे थे. शीतयुद्ध के आवरण में सोवियत संघ के साथ साम्यवादी विचारधारा को ही राष्ट्रीय दुश्मन घोषित कर शिक्षा संस्थानों पर हमला बोल दिया था. देशद्रोह का हव्वा खड़ा कर कम्युनिस्टों तथा उनके समर्थकों की धर-पकड़ शुरू हो गयी थी. भारत के मौजूदा यूएपीए की ही तरह खतरनाक पैट्रियाट तथा अन्य काले कानूनों के तहत तमाम बुद्धधिजीवियों, फिल्मकारों, शिक्षाविदों को निशाने पर लिया गया. आइंस्टाइन की निगरानी के लिए यफबीआई में एक अलग सेल थी लेकिन सेलिब्रिटी स्टेटस ने उन्हें बचा लिया. मैनहट्टन प्रयोजना से जुड़े रहे रोजेनबर्ग पति-पत्नी को परमाणु बंम से संबंधित फार्मूला लीक करने के आरोप में मौत की सजा दे दी गयी. हजारों शिक्षकों तथा छात्रों को प्रताड़ित किया जा रहा था. ऩई  शिक्षा नीति में प्रणाली तथा पाठ्यक्रम ऐसे बनाए गये जिससे चिंतनशीलता को कुंद कर राज्य पर बौद्धिक निर्भरता सिखाया जा सके. अमेरिकी अपनी शिक्षा पद्धति का मजाक उड़ाते हुए उसे बहरा बनाने की प्रक्रिया(डंबिंग प्रॉसेस)कहते हैं.
नरेंद्र मोदी की सरकार ने सत्ता की बागडोर संभालते ही शिक्षा नीति में बदलाव शुरू कर दिया तथा परिसरों पर हमला. जिस तरह कोई अंतिम सत्य नहीं होता, उसी तरह कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता. ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है. हर पीढ़ी पिछली पीढियों की उपलब्धियों तथा योगदानों को सहेज कर उसे आगे बढ़ाती है. वैचारिक द्वंद्व इस प्रक्रिया को गति देता है.  मैं अपनी पहली क्लास में, हर साल, कोर्सेतर अन्य बातों के साथ दो  बाते जरूर बताता हूं. पहली कि किसी भी ज्ञान कि कुंजी है, सवाल-दर-जवाब-दर-सवाल, अपने वैचारिक संस्कारों से शुरू कर अनपवाद हर बात पर सवाल. दूसरी बात कि उच्च शिक्षा की ये संस्थाएं ज्ञान देने के लिए नहीं बनी हैं. इनका वास्तविक मकसद विद्यार्थियों को ऐसी सूचनाओं एवं दक्षताओं से लैस करना है जिससे व्यवस्था को बरकरार रखा जा सके, यद्यपि घोषित  उद्देश्य चिंतनशील नागरिक तैयार करना है. ज्ञान के लिए अलग से प्रयास करना  पड़ता है. इसी अलग से प्रयास की जुर्रत में मोदी सरकार तथा संघ गिरोह ने देशद्रोह का हव्वा खड़ा करके हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय तथा जेयनयू पर पूर्वनियोजित हमला बोल दिया. इन विश्वविद्यालयों से ही चिंतनशील इंसान भी निकलते हैं तथा विद्रोह की आवाज बुलंद करते हैं, शिक्षा के चलते नहीं शिक्षा के बावजूद.
वैसे तो विश्व बैंक के आदेशानुसार, शिक्षा के पूर्ण उपभोक्तातरण तथा व्यावसायीकरण का सिलसिला कहीं लुके-छिपे, कहीं खुले-आम, उसी समय शुरू हो गया था जब नरसिंह राव सरकार ने 1991 में डव्लूटीओ प्रस्तावित भूमंडलीकरण के प्रस्तावों पर दस्तखत किया था. अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में यनडीए सरकार के शासनकाल में, जब शिक्षा मंत्रालय,  मानव संसाधन मंत्रालय बन गया तब से यह सिससिला धड़ल्ले से खुलेआम हो गया. पिछले ढाई दशकों में इंजीनियरिंग तथा मैनेजमेंट के तमाम निजी क़ालेज तथा विश्वविद्यालय कुकुरमुत्तों की तरह देश के कोने कोने में उग आए. दिल्ली में इन शिक्षण दुकानों को संबद्धता दिलाने के लिए, 1998 में सुषमा स्वराज के तहत भाजपा शासन काल में, राज्य विश्वविद्यालय के रूप में इंदप्रस्थ विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी. 1995 में विश्व बैंक ने शिक्षा को सेवाओं के व्यापार पर समस्त समझौता (गैट्स)  में व्यापारिक सेवा के रूप में शामिल कर लिया. यूपीए सरकार इस दस्तावेज पर दस्तखत को सिद्धांततः राजी थी लेकिन शायद शैक्षणिक जगत में व्यापक विद्रोह के भय से इस पर दस्तखत नहीं कर पाई. 2015 में नैरोबी में यनडीए सरकार  इस पर दस्तखत कर आई. इसके लिए पथ प्रशस्त करने के लिए सरकार ने शिक्षानीति में व्यापक फेर-बदल शुरू कर दिया तथा उच्च शिक्षा संस्थानों पर तीन तरफा हमला. शिक्षा नीति में परिवर्तन; उच्च शिक्षा संस्थानों के मुखिया के पद पर संदिग्ध शैक्षणिक योग्यता वाले आरयसयस पृष्ठभूमि के व्यक्तियों की नियुक्ति तथा शिक्षक-छात्रों के प्रतिरोध का दमन. दमन में आरयसयस गिरोह की छात्र इकाई एबीवीपी पांचवे कॉलम का काम करती है, जैसा कि हैदराबाद तथा जेयनयू के उदाहरणों से स्पष्ट है. शिक्षा को छिन्न-भिन्न करने की कवायद पिछली, यूपीए सरकार के समय ही शुरू हो गया था. मौजूदा सरकार उस एजेंडे को और आक्रामक तरीके से लागू कर रही है.
पिछली सरकार के कार्यकाल में दिल्ली विश्वविद्यालय आनन-फानन में, कोर्स परिवर्न के सारे स्थापित मानदंडों को धता बताते हुए, हड़बड़ी में चार-साला स्नातक कार्यक्रम (यफवाईपी) शुरू कर दिया था जिसका विश्वविद्यालय समुदाय ने व्यापक विरोध किया. यूपीए शासनकाल के इस विरोध में भाजपा समर्थक संगठन यनडीटीयफ भी था. मोदी सरकार के आते ही इसे रामबाण बताने वाले, विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष को यह कार्यक्रम नियमों का उल्लंघन लगा. चारसाला कार्यक्रम रद्द कर उसे तीनसाला में बदल दिया गया तथा कुछ ही साल पहले शिक्षकों तथा छात्रों के विरोध के बावजूद वार्षिक प्रणाली की जगह थोपी गई सेमेस्टर प्रणाली की वापसी हो गई. साल भीतर ही सरकार ने शिक्षानीति में आमूल परिवर्तन शुरू कर दिया. केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम समेत प्रस्तावित उच्च शिक्षानीतियां, यदि पारित हो गयीं तो विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता नष्ट हो जायेगी तथा चिंतन-मनन एवं शोध-अन्वेषण के ये केंद्र कुशल कारीगर पैदा करने के कारखाने बन जायेंगे. विश्वविद्यालय ज्ञान के केंद्र से कारीगरी सिखाने के वर्कशॉप बन जाएंगे.
यह लेख इस बात से खत्म करना चाहूंगा कि इंसान अनुभव, अध्ययन, प्रयोग तथा दिमाग के प्रयोग से ज्ञान अर्जित करता है. शिक्षा शासक वर्ग के  विचारों को युग का विचार बताकर शासक वर्ग के हित में युगचेतना का निर्माण करने तथा बरकरीर रखने के मकसद से के ज्ञान को एक खास दिशा में परिभाषित करती है, शासक विचारों के प्रसार से युग चेतना का निर्माण करती है. देश भर में जारी छात्र आंदोलन युगचेतना के विरुद्ध सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की दिशा में एक निर्णायक पहल है.  

ईश मिश्र
राजनीति शास्त्र विभाग
हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली 110007
मोबाइल : 9811146848
mishraish@gmail.com






Saturday, May 21, 2016

मोदी विमर्श 50

Prem Prakash Tiwari मुझे लगता है ब्राह्मणवादी ताकतों (संघी गिरोह) ने आप जैसों को किसी भी स्वस्थ विमर्श को विषयांतर से विकृत करने के लिए को लगा रखा है . विषय कुछ भी हो या तो मार्क्सवाद के भूत से परेशान हो अभुआने लगते हैं या 60 साल के कांग्रेस के कुकृत्यों का हिसाब मांगने लगते हैं. भक्ति भाव के चलते दिमाग लगाने की आदत छूट गई लगती नहीं तो समझ आता कि यह पोस्ट ब्राह्मणवाद-फासीवाद-कॉरपोरेटवाद के खतरों से लड़ने को लेकर है. बंधु कुढ पढ़िए और दिमाग लगाइए नहीं तो तोतागीरी करते करते बौद्धिक बौने ही बने रहेंगे.आपका यह घिसा-पिटा, सड़ा-गला कुतर्क कि भाजपा ही नहीं कांग्रेस भी मुल्क बेच रही थी, अमान्य हो चुकी है. भाजपा देशभक्क्त है तो कांग्रेसी कुकृत्यों को पलटे न कि देश बेचने की प्रक्रिया को आक्रामकता से तेज कर दे. जिसनेे 60 साल सरकार चलाई और जो 2 साल से चला रहे हैं ,दोनों मौसेरे भाई है. कांग्रेस डर सहम कर मुल्क बेच रही थी यो बेशर्मी से खुले आम. कांग्रेस नफरत फैलाकर देश तोड़ने का काम नहीं कर रही थी, भाजपा-आरयसयस की राजनीति ही नफरत पर टिकी है. जब तक लोग धर्मांध, कूप मंडूक बने रहेंगे तब तक चालाक लोग उनको उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे. आप तय कीजिए उल्लू बनाये जाते रहना पसंद करेंगे या चिंतनशील इंसान बनना.

ब्रेख्ट को याद करते हुए

"क्या अधेयुग में गीत गाये जायेंगे?
हां अंधेयुग में अंधेयुग के गीत गाये जायेंगे"
खुद के सवाल का जवाब दिया था बर्टोल्ट ब्रेख्ट ने
जर्मनी पर छाया था जब नाज़ी घटाटोप
आत्मसात कर ब्रेख्ट का संदेश
गा रहे हैं छात्र-नवजवान इस अंधेयुग के गीत लगातार
फैल रहा है भारत में जब ब्राह्मणवादी फासीवाद का अंधकार
जयभीम लालसलाम के नारे कर देंगे ख़ाक सारी हिटलरी हुंकार
चीर अंधेरा धर्मोंमाद आयेगा नया बिहान
इंकिलाब के नारों से गूंज उठेगा हिंदुस्तान
जय भीम लाल सलाम
(ईमि: 22.05.2016)

Saturday, May 14, 2016

JNU 16

Anirban Bhattacharya Gossip-slandering has been regular feature among left factions that must stop. तुम्हारी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों? I know through experience that such things cause intense pain and agony independent of our conscious will. Just laugh it out and focus on your work that no gossiper can take away. I am in the middle of an article on Dichotomy of Education and Knowledge and got a quotation from an American's post on fb. "Stopping Trump is not the solution, solution lies in eradication of education system that produces so many Trump supporters." Do not waste time in depression. I am tempted to share some post emergency gossips but some other time. In 1983 "Party line" gossip of one group on my rustication was that I deliberately got rusticated by not writing an apology as it gave me a face saving because I was incompetent of writing a thesis. Don't bother to react to them (though not easy but then everyone can do) and let the work speak. Jaybhim Lalsalam.

Friday, May 13, 2016

जेयनयू 6

13 मार्च को मुज़फ्फर पुर में जेयनयू पर एक मीटिंग के लिए राजधानी से पटना जा रहा था. हमारे कैबिन के सहयात्रियों में जेयनयू में स्पेनिश तृतीय वर्ष की एक छात्रा के माता पिता भी थे. मुझे आउटलुक में जेयनयू पर लेख पढ़ते हुए देख उसकी मां ने सहमते हुए जेयनयू के बारे में मेरी राय जानना चाहा. मैंने हंस कर कहा कि वहां जाकर सब ऐसा बिगड़ते हैं कि मेरी तरह बुढ़ापे तक बिगड़े रहते हैं. फिर मैंने उनकी बेटी, उनके बेटे तथा उसकी उम्र की और लड़कियों और उनकी बेटी मे फर्क के बारे में पूछा. सहमें चेहरे पर चमक आ गयीं. उन्होने बताया कि उनकी बेटी बाकी लड़के-लड़कियों से सोच-समझ, आत्म विश्वास, अभिव्यक्ति के साहस, निर्भीकता में बहुत आगे है. हमारी बातें सुन एक जनेऊधारी फौजी का खून खौलने लगा मैंने उसे समझाया कि उसकी गलती नहीं है वर्दी पहनने के साथ दिमाग की हरकतें बंद हो जाती हैं तो खून ही खौलता है, लेकिन ज्यादा खौलेगा तो इवॉपरेट होने लगेगा. जब वह जेयनयू के लड़के-लड़कियों के बारे में ऊल-जलूल बोलने लगा तो मुझे लगा कि बेटी का करेक्टर मां में प्रवेश कर गया है. बाप रे, उस फौजी को ऐसा धोया की पूरी कैबिन सन्नाटे मे. मैंने फौजी से ईमानदारी से बताने को कहा कि वह और कोई नौकरी न पाकर नौकरी के लिए फौज में गया है या देशभक्ति के लिए? नाम भूल गया. बेटी को सलाम जिसने मां में जेयनयू के विचार का संचार किया. मां को तो सलाम है ही. ये सारी माताएं, गोर्की के मां के पावेल की मां की याद दिलाती हैं.

Marxism 16

A comment on Ram Naga's post.
Congratulations. Many many salutes for heroically holding up against big odds. You have taken legacy to higher level. Salutes. Please do not take it as hostile criticism but a self criticism. A Marxist must be ruthlessly self-critical. War is not over, it has just begun, long way to go as repression is not going to stop hence the spirit of resistance needs to be maintained and strengthened. Relax a bit and then we have to go back to where we left. Occupy UGC,perpetrators of Rohith's institutional murder are having free hand. Nationwide student consciousness against the dubious designs to gift away the higher education to WB. We start with the demand of total transformation and after clamp down, the slogan comes down to JAIL KE PHATAK TOOTENGE--HAMMARE SATHI CHHOOTENGE. Back to square one. That is why the real battles are ahead. Now we have to begin from beginning again. The "authority" has so many apparatuses to subvert and divert the agenda and we have no alternative but to react as an unavoidable immediate task. With wishful thinking, I have written in my many articles and fb posts that this is a beginning of new cultural struggle with the unity of slogans of JayBhim LalSalam and that the unity of slogans; the unity of struggles must result into political unity with a new theoretical basis for a new political formation, as the old ones have become either redundant or obsolete with progressively declining mass base. But if wishes were horses. A subtle sectarianism and party line, both anti-Marxist concepts,were galore, I wish my observation is wrong. We were so upset with the goings-on in the evening of AC meeting. I called up Ujjwalda in (Ujjwal Bhattacharya, the 70 year old boy)in Germany who in turn called up 3-4 students from Social justice plank. Last thing that sounds like lamentation (with expected reaction बोलने का मौका नहीं दिया तो ज्ञान बघारने लगा), is that as a first decade of JNUite and an activist of just another so-protracted movement in 1983, inviting first Police clamp down and arrests, wanted the mike for few minutes during the nationalism classes to share its experiences. I shamelessly made several requests from the time of the announcements to JNUTA and JNUSU, but probably it was not in line with the party line with the managers of the mike. I am not a big name but even the ordinaries might have to say something sense. It is not, honestly speaking, lamentation about opportunity to address, but just to point out existing sectarianism and sense of diffidence, that must be done away with, if you really wish to create the history. To create history, one needs to critically comprehend one's own history and learn from it with ruthless self-criticism, as Marx would say. That is why I wished just to share some experiences and observations the history of JNU's student movements. 1983 "May revolution" was to defend the admission policy from proposed elitist changes. Com. Dileep Upadhyay (no more) once jokingly said, "French May Revolution was a tragedy, ours was not even the farce". University was closed sine-die and 1983-84 was zero year. 20 students were rusticated, 3 of them subsequently apologized and were taken back. 3 students including me were rusticated for 3 years, others for 2. No one except passing references by Mukul Manglik and Amit Sengupta, no one talked about it as most of them had crossed the fence. I had saluted them in one of my fb posts for making up now for then by standing with Stand With JNU. I love you all for laying the foundation of potentialities of a new history. The way Sehla conducted the proceedings is commendable (Except ignoring my request, ha ha) Please read my article in Countercurrent (4 May). We the oldies were discussing about unity of various groups, Anil Chaudhary (JNUSU Gen Sec 1980) jokingly he pointed to another contemporary, senior member of his party standing with us at Freedom Square that इन सबको यहां से हटा दो, स्टूडेंट्स अपने आप एक हो जायेंगे. Friends, you have opportunity to create history but that needs sustained various hues of lalsalam and jaybhim, unity in practice as well as in theory. I wrote in an article over 3 decades ago (10 copies of which I gave on hunger strike sight) that Marx had put Hegel upside down Indian communists have put Marxism upside down. To put it straight it has to be put upside down by critically re-reading Marx and Lenin and by redefining Democratic Centralism, which was envisioned to be a better alternative of participatory democracy. You need to reverse the trend of "Politics from above" to "politics from below". Sorry for the long "class". मास्टरों को बक बक की बुरी आदत लग जाती है. In fact I had reserved this morning for final editing of another long article on JNU for June Issue of समकालीन तीसरी दुनिया. There was one in its April issue (available at Geeta Book Center). I thought of writing a 2-liner congratulatory comment but then became politically emotional. I shall always stand with Stand With JNU. जेयनयू तेो हमारा गांव-देश है. किसी को मेरी बात बुरी लगे तो बेबाकी से कह दें. आप के क्रांतिकारी जज्बे तथा निष्ठा को जयभीम-लालसलाम. JNUSU March on. खूब पढ़ो, खूब लड़ो.

Thursday, May 12, 2016

जेयनयू 5

जो भी जेयनयू के संघर्ष की एकता, जयभीम, लालसलाम नारों की एकता तोड़ेगा इतिहास उसे कभी नहीं मॉफ करेगा. संस्थान बचेंगे, विचार बचेंगे तभी सामाजिक न्याय भी बचेगा. शासकवर्ग हमें इन विवादों में फंसाकर शिक्षा का पूर्ण निजीकरण करना चाहता है जिससे सामाजिक न्याय वैसे ही अप्रासंगिक हो जाएगा. पैसा फेंको तमाशा देखो. दोस्तों एक सठियाए(60 साल) पुराने जेयनयूआइट की अपील है कि इस क्रांतिकारी परिस्थिति को नष्ट न करें. मुल्क इस अंधे युग में आप में रोशनी की एक किरण देख रहा है. जेयनयू एक विचार बन चुका है. जेयनयू की हार विचार की हार होगी, जनतंत्र की हार होगी. पहले तो परिसरों पर ब्राह्मणवाद के हमले का एकजुटता से सामना करें. साझे संघर्ष के दौरान संवाद, वाद-विवाद, विचार-विमर्श के जरिए नारों की प्रतीत्मात्मक एकता को अमली तथा सैद्धांतिक रूव देने का अवसर है, यह अवसर चूका तो इतिहास रचने का मौका आपके हाथ से निकल जाएगा. युवा ही क्रांति का ऐतिहासिक वाहक होता है. एक आखिरी बातः काम या विचार की बजाय जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है, जो भी ऐसा करता है वह ब्राह्मणवाद का पोषक है तथा ब्राह्मणवादी जितना ही नंदनीय.

जेयनयू 4

डॉक्टर्ड वीडियो के बाद डॉक्टर्ड दस्तावेज. एबीवीपी तथा प्रशासन इस हद तक गिर गये हैं लालसलाम-जयभीम की एकता तोड़ने के लिए 16 अप्रेल की स्टेंडिंग कमेटी की मीटिंग के मिनट पर कन्हैया तथा नागा के फर्जी हस्ताक्षर दिखाकर प्रचारित कर रहे हैं. गौरतलब है कि इस कमेटी ने ए्डेसगसन में डेप्रीवेसन प्वाइंट्स तथा ओबीसी कोटा में में कटौती की सिफारिस की है. यह भी गौरतलब है कि छात्रसंघ अध्यक्ष तथा महासचिव एसी की तरह ये ब्राह्मणवादी संघी इतने मूर्ख होते हैं कि उस मिनट पर इनके दस्तखत दिखा दिखा रहे हैं जिसमें ऊपर ही लिखा है कि मीटिंग में कन्हैया तथा नागा अनुपस्थित थे. ब्राह्मणवाद के विरुद्ध निर्णायक युद्ध का मौका निकल गया तो इतिहास फिर और भी पीछे खिसक जायेगा. मैंने छात्रों को एक बार संबोधित करने का अनेकानेक आग्रह किया लेकिन शायद मंच प्रबंधन की पार्टी लाइन इसका इजाजत न दे. मैं बार-बार कह रहा हूं यह इतिहास का एक निर्णायक मोड़ है. संघर्ष की इस एकता को संवाद-विमर्श तथा व्रेन-स्टॉर्मिग सेसन्स के जरिए क्रांति के नये सिद्धांत की जरूरत है. जय भीम लाल सलाम. दोस्तों आपस में जूता-पैजार करो लेकिन यह एकता नहीं टूटनी चाहिए. जयभीम लाल सलाम.

JNU 15

Dear friends, I was rusticated in "May revolution" 1983 in defence of the admission policy with which they are trying to fiddle again. I have lots of grudges against people who had compromised then but now are with the JNU struggle, salutes to them. Friends as a teacher and activist w/o party affiliation but concerned with the fascist attack on education and total social transformation, I appeal to you to remain united and fight out attack on democracy. Circumstances have provided us an opportunity to create history. The country is looking at JNU as a bright ray of hope resonating with the slogans of Jaybhim Lalsalam. Let us use this opportunity for the decisive war against Brahminism. If we get into RSS trap of divide and disrupt, history shall not forgive us. Let us sort out differences through debate and discussion that has been the idea of JNU.

Tuesday, May 10, 2016

बीयचयू छात्र जेयनयू की राह पर

सुनो विश्वविद्यालयों के नगपुरिया कुलपतियों
जहालत के ब्राह्मणवादी ठेकेदारों
डराना क्यों चाहते हो
दिखा कर लट्ठ तथा पुलिस का खौफ
कहते हो संविधान नहीं चलता बीयचयू में
जब कहते हम विरोध के अधिकार की बात
हमारी मर्यादित मांगों को कहते हो उत्पात
तोप तान देते हो क्यों
जब भी लड़ता है छात्र  पढ़ने के लिए
क्यों चाहते हो हमें डर कर जीना सिखाना
क्यों चाहते छीनना पढ़ने पढ़ने का हक
क्यों चाहते हो तोड़ना मेरा कलम
तो सुना नगपुरिया बाबा के चेले
क्या नाम है तुम्हारा
त्रिवेदी, द्विवेदी जो भी हो
 मत खेलो इन युवा उमंगों के सैलाब से
हैदराबाद से उठी चिंगारी
दावानल बन गयी है जेयनयू पहुंच कर
आजादी चौक बन गया है उसकी सत्ता का गढ़
आश्रय खोज रहा है बचने का
आजादी के नारों की आंधी  से
उसका भी क्या नाम है
तुम्हारे शाखा सखा जेयनयू के वीसी का
अगदेश जगदेश जो भी हो
कितना भी दिलाशा दो अपने दिल को
ये जो सड़कों पर रात में पढ़ रहे हैं लड़के-लड़कियां
मांगते हुए पढ़ने का अधिकार
लड़ सकें जिससे ज़ुल्म के खिलाफ
लाठी-गोली निष्कासन की तलवारों के दमकल से
नहीं बचा सकोगे बीयचयू जेयनयू से शुरू दावानल से
क्योंकि जेयनयू एक विचार है
विचार गतिमान है
मरता नहीं इतिहास रचता आगे बढ़ता है
नहीं बचा पाओगे तुम बीयचयू जेयनयू बनने से
डराना बंद कर अब डरना शुरू करो
क्या नाम है तुम्हारा जो भी हो
अप्पा राव, जगदेश चंदर या त्रिपाठी
क्योंकि छात्रों ने डरना बंद कर दिया है
सलाम करता हूं बीयचयू के युवा साथियों को
जयभीम-लाल सलाम
(ईमिः 10.05.2016)

Monday, May 9, 2016

Spartacus

SPARTACUS

"SPARTACUS" is a powerful novel of ancient slave society with rich meaning for the liberation struggle of our day. It is brilliantly written, and in certain sections probably represents the high point in the development of Howard Fast's superb craftsmanship.
The story of Spartacus and his army of slave warriors is one of the great epics of history. Early in the First Century B.C., a quickly organized force of 70,000 runaway slaves (some sources say 90,000, others 100,000 ), led by Spartacus and his heroic band of escaped gladiators, held the military might of Rome at bay for almost four years, routing its best legions, establishing control over most of southern Italy, ant threatening the "Eternal City" itself.
They were finally destroyed by the state power of a slave system which, although in process of decay, was still a strong and stable society. Their revolutionary struggle for freedom - which historians euphemistically call "The Servile War" and "The Gladiatorial War" - forecast the day, some four centuries hence, when the maturing revolution of the slaves would pave the way for the "Barbarian invasions" and destruction of the Roman Empire - and along with it the slave mode of production upon which it rested.
The Spartacus revolt long ago attracted the attention of revolutionary leaders of the modern proletariat. Karl Marx wrote Frederick Engels in 1861: "As a relaxation in the evenings I have been reading Appian on the Roman Civil Wars.... Spartacus is revealed as the most splendid fellow in the whole of ancient history. Great general (no Garibaldi), noble character, real representative of the ancient proletariat." More recently, Soviet historiography found the Spartacus revolt an important event in its analysis of "The Transition from the Ancient World to the Middle Ages" (as in Voprossy Istorii, July, 1949).
But the story of Spartacus is little known in our day and country. Only from fragmentary and scattered accounts of a few contemporaries can it be pieced together at all. It is hardly mentioned in the history books of our schools and colleges. Only three sentences are devoted to the Spartacus revolt in the Encyclopedia Britannica's tedious, 100,000-word treatise on "Rome" and its long succession of rulers. Moreover, even the rare and brief accounts of Spartacus which do appear in our literature seek to deprecate this revolutionary movement as an incidental uprising of "desperate savages," "outlaws," "brigands," and "impoverished peasants."
In Howard Fast's novel, the Roman general whose legions finally defeated Spartacus recounts to associates visiting at the aristocratic Villa Salaria how, on orders of the Senate, he also destroyed two magnificent monuments carved by the revolutionary slaves out of volcanic stone on the slope of Vesuvius: "We destroyed the images most thoroughly and ground them into rubble - so that no trace of it remains. So did we destroy Spartacus and his army. So will we in time - and necessarily destroy the very memory of what he did and how he did it."
This prediction of the wealthy Roman praetor, M. Licinius Crassus, was almost fully realized. We are greatly indebted to Howard Fast for resurrecting and interpreting the significance of this heroic slave war for liberation, a war which came close to accomplishing what could be fully consummated only on the basis of economic and political developments which had yet to run their course.
Although the setting and narrative of Spartacus date back more than 2,000 years, it is clear that this novel was written to illuminate our own times. The pompous decadence of the Roman ruling class is here contrasted with the simple dignity and progressive vigor of the slaves in a way which evokes repeated images of the main contending classes of today.
One sees the cynical corruption of the Roman political leaders, their gross sexual immorality and perversion, the degradation of their women and the degeneracy of their youth. Here pictured is the sadistic delight of the ruling class and its sycophants in gladiatorial "fighting of pairs to the death," and their morbid fascination with the mass crucifixions of "enemies of the state." The magnificent "public" baths, the splendor of the latifundia estates and the elaborate cuisine of ruling class families contrast sharply with the horrible oppression of the slaves and the murderous poverty of the urban poor.
The reader is impressed with the parasitism of almost the whole non-slave population, in a society where even the dole or the army or the role of paid informer is considered much more "honorable" than work. One also comes to understand the vapid servility of the intellectual apologists of this rotten system - the Roman philosophers and statesmen who, like Cicero, would "explain, even to ourselves, the logic of this justice"; who held, and seemingly believed, that "the state and the law served all men, and the law was just."
At the same time, it must be stated that the author's descriptions of the sexual adventures of his patrician characters are carried to excess, with consequent harm to the book.
On the other hand, the reader sees here the inherent dignity and spiritual nobility of the Roman slaves - in the alert but immobile countenances of the litter-bearers and house servants as they listen to the conversation of their masters; in the beautiful "comradeship of the oppressed" among Spartacus' followers, embracing those from many lands and tribes and religions; in their love and respect for their leaders; and in the simple laws they set for governing the revolutionary army: "Whatever we take, we hold in common, and no man shall own anything but his weapons and his clothes.... And we will take no woman, except as wife . . . nor shall any man hold more than one wife."
One grasps the foundational economic power of these producers of material goods, as when Spartacus asks his follows: "What is Rome but the blood and sweat and hurt of slaves? Is there anything we cannot make?" One senses the tremendous revolutionary dynamic in the simple creed: "The only virtue of a slave is to live." One also catches a glimpse of the free society which only the modern revolutionary working class can build, as in Spartacus' vision of "a world where there are no slaves and no masters, only people living together in peace and brotherhood . . . cities without walls . . . no more war and no more misery and no more suffering" - a vision which "had broken loose from the fetters of his time."
These and many more basic insights into the decaying class society of ancient Rome - and of our own times - are deftly woven into the narrative with such skill that one hastens on with the gripping story, hardly aware of the political purposes of the author. But the reader ends up with a profound and enduring lesson in the dynamics of social change.
It is not surprising that none of the big commercial publishing houses would bring out this book, or that the New York Times reviewer slanders it as "a tract in the form of a novel . . . proof that polemics and fiction cannot mix." They would defend the rotten and doomed imperialism of our day from the tremendous power of this cultural weapon of the working class.
For the novel shows that the Spartacus revolt reflected deep and inherent contradictions in the class society of the slave system, and that it probably would not "have changed history too much if Spartacus had perished" in the gladiatorial arena. Fast also suggests the true class basis of ethics in his strong contrast between the moralistic rationalizing of the decadent Roman ruling class and the elemental Spartacan code: "What was good for his people was right. What hurt them was wrong."
A writer must be alert to the nature and historic role of the modern industrial proletariat to have the aristocratic young visitors at an ancient perfume factory sense that "there was something different and frightening" about the workers they saw there: "They were not slaves - nor were they Romans. Nor were they like the dwindling number of peasants who clung to bits of land here and there in Italy. They were different men, and their difference was worrisome." There is real materialist insight reflected in the musings of the Roman Senator, Gracchus, on why the fine ladies and gentlemen visiting at the Villa Salaria were so obsessed with discussions of the slain Spartacus and his wife, Varinia - "because Spartacus was all they were not.... Home and family and honor and virtue and all that was good and noble was defended by the slaves and owned by the slaves - not because they were good and noble, but because their masters had turned over to them all that was sacred."
The power of Spartacus stems, in part, from Howard Fast's consummate skill in telling a great story; but it comes much more fundamentally, at its points of real strength, from insights into history which are the fruits of Marxist science.
Spartacus is extremely well written. Parts of the novel beg comparison with the very finest writing in contemporary literature, notably the gripping account of the slaves working in a gold mine in the Nubian Desert, the intensely dramatic struggles "to the death" of the gladiator pairs in the arena at Capua, and the poignant recollections of the last of the gladiators as he nears death on the cross. Particularly striking also is the author's effective use of symbolism - as in his description of the magnificent Roman road lined with some 6,000 "tokens of punishment," the crucified bodies of captured slave warriors; the mutual respect and love of Thracian, African, Gaul and Jew in the gladiator training school; the old slave woman who feared to heed Spartacus' call to arms, but later keeps watch defiantly as the last of his followers is executed; and the somewhat irrelevant choice of David, the Jew, for the final crucifixion, just about one century before the death of Jesus.
An important weakness of the novel lies in the fact that hardly any of the characters are fully drawn, with the possible exception of David, who often seems to rival Spartacus as protagonist. Indeed, although the whole narrative is about Spartacus, one gets to know him largely through the eyes of his friends and enemies; there is too little of Spartacus directly for him to emerge fully as a person.
This weakness results, in part, from the oblique point of view from which the story is told. The direct focus is chiefly on the ladies and gentlemen of the Roman ruling class, presumably estimably to highlight their decadence. Largely through them and incidental to their doings and sayings - with only interspersed direct accounts of the slaves, themselves - does the story of Spartacus unfold. This is a curious and ill-chosen framework within which to interpret the heroic struggles of the revolutionary slaves whom Spartacus led. One shudders to think what might have happened to Gideon Jackson and his comrades if Freedom Road had been written from the point of view of the deposed ruling class of former slave owners in the Reconstruction South.
The fundamental weakness of Spartacus lies in its most disturbingly liberal, self-negating and incredible denouement. Crassus, "the richest man in the world," the proud and arrogant Roman general who defeated Spartacus and destroyed his army, appropriates the slain warrior's wife for his slave and falls in love with her: "Varinia, I love you. Not because you are a slave, but in spite of the fact . . . if you love me, I'll be something else. Something new and fine." Gracchus, the wealthy, corrupt and cynical leader of the Roman Senate, also falls in love with Varinia - sight unseen. He disposes of his fortune in order to have her stolen from Crassus, and spends one "grateful" night talking to her before she is to leave Rome forever: "In all his life before, he had never experienced this same feeling of contentment."
In the morning, just before leaving on her final journey, the strong and fine and heretofore fiercely partisan wife of the slain Spartacus reaches up and kisses the Roman politician who helped destroy her husband, and bids him to share her life: "If you come with. me, I will try to be good to you - as good as I can be for any man." After she is gone, Gracchus frees his twenty slaves and commits suicide.
Absolutely inexcusable! It is a betrayal of the cause for which Spartacus fought and died. And the fact that it is a woman - the widow of Spartacus - who is made the agent of the betrayal compounds the wrong. It is tragic that Fast should mar this generally powerful and realistic novel with such sentimental and impossible tripe.
Reprinted on the jacket of Spartacus is the laudatory comment of Angus Cameron that "one can come away from the reading of this story hating Gracchus and Crassus and the rest for what they stand for and yet seeing the universal possibilities of good in each of them . . . you have told about life as it really is." One can understand this point of view in a liberal editor, but not in a class-conscious novelist for the revolutionary proletariat.
The final chapter of Spartacus is superfluous and anti-climactic. It tells the story of Varinia's trip to freedom and summarizes her life and that of her children among the Gaulish peasants in the foot-hills of the Alps - all of which had better been left to the reader's imagination.
Despite its weaknesses, Spartacus is a very fine novel which merits the widest distribution. It ends with the prophecy: "And so long as men labored, and other men took and used the fruit of those who labored, the name of Spartacus would be remembered, whispered sometimes and shouted loud and dear at other times." For American readers Howard Fast has done much to make that prophecy meaningful in our day.