Thursday, June 30, 2011

marx

मार्क्स ने खुद उनके विचारों को अकाट्य मानने वालों से आजिज़ आकर मजाक में कहा था, जैसा की ऊपर शिक्षा ने लिखा है, "भगवान् का शुक्र है की मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ". जिन भी व्यक्तिओं और दलों ने मार्क्स को अल्लाह मान लिया उन्होंने मार्क्सवाद को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई. मार्क्स एक अतिसंवेदनशील और अद्भुत प्रतिभावान व्यक्ति थे जिनकी इतिहास को समझने और बदलने की विध्हएं आज भी उतनी ही सार्थक हैं जितनी १९वी शताब्दी में. आप बिलकुल सही फरमा रहे हैं की संचार क्रान्ति, जिसे शासक वर्गों ने अपने हित-साधन के लिए विकसित, किया उसने प्रिंट-मीडिया के तमाम समीकरण बदल दिए लेकिन पूंजीवाद का चरित्र नहीं बदला. हर बात के अनचाहे परिणाम होते हैं उसी तरह जिस तरह एडम स्मिथ इतहास को मुनाफ़ा कमाने की गतिविधिओं का अनचाहा परिणाम मानते थे. संचार-क्रान्ति वर्चुअल दुनिया में एक नए ढंग के अन्ताराश्त्रीयटा को जन्म दे रहा है जिसका वास्तविक दुनिया में परिलक्षण समय की बाते हैं. इसमे सबसे बड़े बाधक हैं सुविधाभोगी मध्य-वर्ग और चुनावी कम्युनिस्ट पर्तिआ जो सत्ता-भोग और टाटा और इंडोनेसिया के कम्युनिस्ट दमन में सहयोगी कंपनी से दलाली खाने के लिए मेहंकाशों का कत्ले आम करती आ रही हैं और जिसके लिए वे कांग्रेस, RSS , लालू और भाँति-भाँति के पूंजी के दलालों की गोद में बैठ जाती हैं. नवीन पटनायक ने जैसे ही भाजपा का साथ छोड़ा सीपीयम उसकी दलाली में हाथ बंटाने के लिए उस दलाल की दलाली में जुट गयी. सीपीयम का यह चरित्रा १९६७ से ही शुरू हो गया था जब ज्योति बासु के गृहमंत्री रहते हजारों युवा उमंगों को क़त्ल किया गया, यद्यपि सिद्धार्थ शंकर नामक कमीने कातिल ने उन्हें बहुत पीछे छोड़ दिया. अब प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्री सीपीयम द्वारा पूजी की दलाली को जनतांत्रिक आन्दोलनों के लिए आवश्यक बता रहे हैं.

चवन्नी पर चर्चा के बहाने

चवन्नी पर चर्चा के बहाने
मित्रों
संचार-क्रान्ति ने साहित्य की एक बहुत महत्वपूर्ण विधा -- पत्र-लेखन -- समाप्त कर दिया. इतिहास के साहित्यकारों, दार्शनिकों और चिंतकों के के पत्राचार तमाम विषयों के शोध के प्राथमिक स्रोत हैं. उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम अर्धांश के अंतिम दशकों में जब मार्क्स और एंगेल्स, सर्वहारा के रूप में, इतिहास के नए नायक के आगमन की घोषणा की तो अराजकतावादी, समाजवादी प्रूदों ने एक पुस्तक --दरिद्रता का दर्शन-- के रूप में एक सार्वजनिक ख़त लिख डाला. मार्क्स भी कहाँ पीछे हटने वाले, उन्हेंने भी दर्शन की दरिद्रता लिख कर जवाब दिया. प्रकृति की गति का द्वंदात्मक नियम है कि चवन्नी और पत्र-लेखन की तरह जो भी अस्तित्ववाब है उसका अंत निश्चित है. रह जाती हैं उनकी कहानिया .लेकिन निर्वात नहीं रहता. पुराने की जगह नया लेता है और कुल मिलाकर गाडी आगे ही बढ़ती है, इतिहास की गाडी में बैक गीअर नहीं होता. पुरातन का अवसान और नवीन के आगमन की जहानी उनके राजनैतिक अर्थशास्त्र के पर्प्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है जिसे कुछ टिप्पणियों में जगदीश्वर जी ने उसे बहुत ही यान्त्रीय ढंग से रखा है जो मार्क्सवाद की उनकी सीपीयम टाईप अवसरवादी प्रति-क्रांतिकारी समझ का परिणाम है.

फेसबुक जैसे वर्चुअल मंचों ने पत्राचार द्वारा वैचारिक आदान-प्रदान के अवसान पर उसका मर्शिया पढ़कर उसके इतहास पर चर्चा करने और नए ढंग से वैचारिक आदान का एक बेहतर विकल्प पेश किया है. आइये हम इस मंच का उपयोग सार्वजनिक पत्राचार के लिए करें.मै अगली पोस्ट चवन्नी से सम्बंधित अपने संस्मरण पोस्ट करूंगा उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में .

चवन्नी

चवन्नी छाप
Ish Mishra
चलता था जब सिक्का चवन्नी का
खरीद सकता था ताड़ी का पूरा मटका
औकात इसकी घटती गयी
जैसे-जैसे महंगाई बढ़ती गयी
तब भी चवन्नी नहीं हुई थी बेआबरू
हुई चवन्नी की चाय की रवायत शुरू
रख चवन्नी जेब में चलता था सीना तान
लेता नहीं था किसीका चाय का एहसान
जब तक चुकाती रही यह एक माचिस का दाम
चवन्नी छाप हुआ नहीं तब तक बदनाम
जबसे भूमंडीकरण का मचा है तांडव
चवन्नी की क्या हो गया अठन्नी का भी पराभव
आन पडी है अब तो आफत रूपये के सिक्के पर
रूपया छाप हो गया ऐसे मौकेपर
आओ बचाएं रूपये की आन
खतरे में पडी है अब उसकी जान
२९.०६.२०११

Tuesday, June 28, 2011

खोटी चवन्नी

आजकल खोटी चवनी का चलता है सिक्का
जान कर यह राज मनमोहन हो गया हक्का-बक्का
खारीद लिया सारी खोटी चावान्निया बाज़ार से
रखा किसी का नाम चिदाम्बरम किसी का डी. राजा
बजाया उसने खोते सिक्कों से देश का बाजा.
[ईमि28.06.2011]

चवन्नी छाप

चवन्नी छाप
हो जायेगी अगर पद्यनुमा टिप्पणी ,
करने लगोगे तुम भीषण नुक्ताचीनी
निकालोगे तरकश से गालिओं के भीषण तीर
कभी कहोगे रामदेव तो कभी ओबामा पीर
होता नहीं मैं फिर भी बहुत अधीर
उम्मीद में इस की अब कहोगे संत कबीर
चलता था जब सिक्का चवन्नी का
खरीद सकता था ताड़ी का पूरा मटका
औकात इसकी घटती गयी
जैसे-जैसे महंगाई बढ़ती गयी
तब भी छावनी नहीं हुई थी बेआबरू
हुई चवन्नी की चाय की रवायत शुरू
रख चवन्नी जेब में चलता था सीना तान
लेता नहीं था किसीका चाय का एहसान
जब तक चुकाती रही यह एक माचिस का दाम
चवन्नी छाप हुआ नहीं तब तक बदनाम
जबसे भूमंडीकरण का मचा है तांडव
चवन्नी की क्या हो गया अठन्नी का भी पराभव
आन पडी है अब तो आफत रूपये के सिक्के पर
रूपया छाप हो गया ऐसे मौकेपर
आओ बचाएं रूपये की आन
खतरे में पडी है अब उसकी जान
२९.०६.२०११

Monday, June 27, 2011

क्या दोस्तों!

क्या दोस्तों!
कह कर एक कविता में मन की अपनी फितरत
भांति-भांति की गालिओं को दे दी दावत
ऋतुराज ने दी रामदेव की बहुत ही भद्दी गाली
चार हाथ आगे उससे खुरशीद ने मोदी की गाली दे डाली
हो कर परेशान मैंने गालिआं लेना बंद कर दिया
पहले की भी वापस तुम्हारे हवाले कर दिया
निभाता रहूँगा तुम सबको पकाने का फ़र्ज़ गाली खाए बिना
ऋतुराज देता है गाली जैसे कविता पढ़े बिना
जब भी लेंगे शब्द पद्य का आकार
पकाने से दोस्तों को रुकूं किस प्रकार?

Friday, June 24, 2011

आत्म परक

आत्म परक
ईश मिश्र
पैदा हो गया ब्राह्मण वंश में जन्म के संयोग से
होता था वहां सब कुछ पञ्चांग के योग से
मझुई के किनारे अवध के एक गाँव में
ढाख के वन और अमराइयों के छाँव में
वर्णाश्रमी सामंतवाद तब तक आबाद था
रश्म-ओ-रिवाज़ में जातिवाद जिंदाबाद था
पञ्चांग में जब जन्म के घड़ी पहर का हुआ आंकलन
भगवान के करीब पाए गए मेरे कुण्डली के लक्षण
आषाढ़ कृष्ण पक्ष की दशमी बीस सौ बारह सम्बत
साक्षात ईश रख दिया नाम था जो पञ्चांग सम्मत
सोचा होगा उन्होंने कुछ तो करेगा नाम सा काम
भूल हुई उनसे लेना यह मान
खुद ही जो ईश हो, लेगा क्यों किसी और ईश का नाम
खुश है वह इस नाम से हो गया जो है नहीं सन्नाम
परवाह नहीं उसको रामदेव की गाली दो या कह दो अंकल सैम
देते देते गालिआं भूतों को भगवानो की बारी आ गयी
देख कारनामे उसके अवतारों और पैगम्बरों की उसकी सामत आ गयी
ज्ञान की तलाश में करने लगा सावाल हर बात पर
बरबस ही ध्यान चला गया भगवानों की करामात पर
सोचा यही है अगर दुनिया की नैया का खेवनहार
डूब रहे हैं नाइन्शाफ़ी से क्यों इसके तमाम सवार ?
क्यों लेता है यह राजाओं के घर ही अवतार?
क्यों होते हैं दुनिया में इसके मालिक और ग़ुलाम?
क्यों मरते हैं मेहनतकश भूखे-नंगे-गुमनाम?
क्यों करवाता रक्त-पात धरकर अलग-अलग नाम
बांटे जो इन्शान को वह कैसा भगवान?
क्यों हो रहे हैं बेबस-बेघर मजदूर-आदिवासी किसान?
सबके-सब हैं लगभग इसके परम निष्ठावान
उड़ते हैं आसमान में पूंजीपति और दलाल
लूटते इसकी दुनिया, करते इन्सानियत को हलाल ?
धीरे धीरे हकीकत साफ़ होने लगी
भूतों की ही तरह भावानों के वजूद पर भी सुब्हा होने लगी
धूर्त दिखने लगे सब बाबा-स्वामी; योगी-भोगी
बना देते ये इन्सानो को तर्कहीन-मनोरोगी
भूतों को ललकारा था लड़कपन में
दे दिया चुनौती भगवान को किशोर होते-होते
आया न सामने भूत न ही आया भगवान
इनके वजूद को कल्पित लिया मैंने मान
भूत का भय किया खडा कुछ स्वार्थी कमीनो ने
गढ़ दिए भगवान चतुर चालाक इन्सानों ने
जब लगा  भूत-भगवानों को ललकारने
आ गए ओझा-सोखा; पंडित-पण्डे सामने
तर्क नहीं, चलाने लगे आस्था के  तीर
तर्कों ने मेंरे दिया जिन्हें चीर
चुप हो गए वे मन मार कर
छुप गए मंदिर में एक छात्र से हार कर
ख़त्म हो गया जब भूत-भगवान का भय
हो गया तबसे हर बात से निर्भय
२८.०६.२०११

केदारनाथ सिंह की कविता

केदारनाथ सिंह की कविता
ईश मिश्र
कौन कहता है केदारजी हैं अभिजात वर्ग के कवि ?
पढ़ा नहीं होगा उसने आमजन की काशी की छवि
उनकी कविता क से सुनाती है ककहरा
टाट-पट्टी पर सिखाती है जमा-घटा;भाग-गुणा
भागती रेल करती बेचैन और व्याकुल
पहुँच जाती दौड़ कर माझी के पुल
रो देती है देख दंगे और मजहबी खून खराबा
उदास कर देता है इसे खाली घर करीम चाचा का
आह्लादित हो जाती है देख पहली बरसात
हरी-भरी कर देती है जो खेती-बाड़ी और घास
घबराती है नहीं देख बाढ़ के प्रलय का प्रकोप
छाए हों विपदा के बादल चाहे घटाटोप
हो कैसी भी भीषण विभीषिका
व्यक्त करती है आमजन की व्यथा और जिजीविषा
यह साहस और संकल्प है आमजन का जज्बा
अभिजात इस विपत्ति में टूट जाता कबका
समीक्षा होती है निष्पक्ष विवेचना
पूर्वाग्रह से विकृत हो जाती है आलोचना.
[22.06.2011]

Wednesday, June 22, 2011

मै एक लड़की हूँ अक्सर दलित

मै एक लड़की हूँ, अक्स़र दलित
--ईश मिश्र--

प्रस्तावना के बदले

जब भी बदलते हैं उत्पादन के तरीके और जीने के हालात
बदल जाते हैं सोचने-समझने; कहने-सुनने के रश्म-ओ-रिवाज़

जीने के नए हालात से पैदा होती नयी चेतना
होने लगती है पुरातन ताकतों के हृदय में वेदना

होता नहीं कोई स्वभाव से मालिक और गुलाम
उत्पादन के सामाजिक रिश्ते देते यह अंजाम

बदलती है जब उत्पादन पद्धति और सामाजिक सम्बन्ध
मालिक और गुलामों के बनते नए किस्म के अनुबंध

होता आया है अब तक, होता रहेगा तब तक
ख़त्म नहीं होता वर्ग-समाज जब तक

इस दौरान आयेगा मजदूर-किसान का राज
न होगा जहां कोई तख़्त न ही कोई ताज़

पहले के जमाने में सुकरात ने किया नए ज्ञान की शुरुआत
मूल में था जिसके हर बात पर सवाल-जवाब

बड़े-बूढों से बच्चे करने लगे सवाल-जवाब
माँगने लगे हकीकत का तर्कसंगत हिसाब

घबराई यथा-स्थिति देख यह अनूठा मिजाज़
बोला, ख़त्म हो जाएगा छोटे-बड़े का लिहाज

खतरे में पड़ जाएगा पुरखों का गौरवशाली रश्म-ओ-रिवाज
जिनमें अटूट आस्था जन की, था लफ्फाजों के राज का राज़

चला मुकदमा उनपर, लगे देव-द्रोह और नास्तिकता के आरोप
छा गए तर्क की दुनिया पर कुतर्क के बादल काले घटाटोप

थे अकाट्य तर्क सुकरात के इसमे नहीं दो मत
तर्क पर भारी पड़ गया मगर कुतर्क का बहुमत

सत्य के लिए किया सुकरात ने विषपान
सुकराती तर्क बने हैं आज भी महान

इतिहास गवाह है हर इस तरह की बात का
तर्क पर भारी पड़ता है जब भी कुतर्क जज़्बात का

पैदा होता है तब स्वघोषित, देव-पुत्र, रक्त-पिपासु, सिकंदर महान
रखता है जो भूमंडल को फुटबाल बनाने के अरमान

मटियामेट कर देता है सारे यूनानी शौकत-ओ-शान
घोड़ों की टापों से रौंद डालता है सभी दर्शन और ज्ञान [०१.०९.२०११]

आज के सुकरातों की सूरत बदल गयी
आवारा दार्शनिक से दलित लड़की बन गयी

इस बार नहीं होगा सत्य और तर्क का अपमान
करना पडेगा अबकी एनीटस को विषपान

होगी अंततः कुतर्क पर तर्क की जीत
शुरू होगी सारी दुनिया में इन्साफ की रीत

भौतिक परिस्थियों से तय होती है चेतना समाज की
नयी चेतना है नतीज़ा बदले हालात की

हालात के खुद-ब-खुद बदलने की बात है झूठा कयास
करता है इसमें मनुष्य अनवरत सचेत प्रयास

इतिहास की यात्रा में कई मंजिलें पीछे छूटती हैं
इस क्रम में कई वर्जनाएं टूटती हैं

टूटती हैं वर्जनाएं तो होता यथास्थिति को सांस्कृतिक संत्रास
करने लगती रोकने के सारे जायज-नाजायज प्रयास

इस कहानी की नायिका है एक लड़की और दलित
तोड़ती है दुहरी वर्जनाएं है जो इंसानियत-रहित

कभी-कभी सिर्फ लड़की ही होती है दलित नहीं
इकहरी वर्जना भी होती कुछ कम नहीं

होते रहे हैं दलित लड़की पर अत्याचार अक्सर
पड़ने लगी हैं अखबार की कुछ पर अब  नज़र

दो महीने में छपी बलात्कार की सौ खबर
हो गया अब कवि का आक्रोश बेसबर

ये खबरें हैं मानवता के अपमान की
दुश्मन दलित-ओ-नारी चेतना अभियान की

रुकेगी नहीं अब यह बदलाव की धारा
यथास्थिति लगा ले चाहे जोर सारा

नहीं है यह कोई कल्पित अफ़साना
हकीकत है पूरी बिलकुल नहीं फ़साना
०३.०७.२०११
(एथेनियन राजनेता एनीटस ने लुरात पर अभियोग लगाया था)

मै एक लड़की हूँ ऊपर से दलित
जुर्रत ये कि विमर्श करती हूँ दलील सहित

देख मेरी ये हिमाकत
खतरे में पड़ गयी ज्ञान की ताकत

विमर्श करे लड़की, वह भी दलित
हो गया ब्रह्माण्ड डावांडोल और चकित

ऐसा ही हुआ था पुराणों के त्रेता युग में
चला था एक शूद्र सम्बूक तपस्वी बनने

नहीं था वह लड़की, था सिर्फ दलित
उसकी तपस्या से हो गया वर्णाश्रमी सिंघासन कुपित

वर्जित क्षेत्र में प्रवेश से एक शूद्र के हिल गया ब्रह्माण्ड
कहते हैं खतरे में पड़ गया था वैदिक कर्म-काण्ड

कर्म के हिसाब से होता जो वर्ण का निर्धारण
तपस्या कभी न बनती सम्बूक की मौत का कारण

भूल किया उन्होंने मान कर वर्णाश्रमी गणित
समझना था उसे इसके दोगलेपन सहित

भेजा नहीं राजा राम ने मारने उसे लक्षमण-भरत-हनुमान
स्वयं चल पड़े महाराज करने सर-संधान

समझ गया है अब संबूक रामों और वाशिष्ठों की चालें सारी
है इनके विरुद्ध उसके पास, अब तर्कों के अश्त्र-शस्त्र की पिटारी

घुसी हूँ दुहरे वर्जित क्षेत्र में प्रामाणिकता के साथ
तोड़ दूंगी बढेगा रोकने, जो भी मनुवादी या मर्दवादी हाथ

देखकर धार ऐसी समझ, दावेदारी और स्वाभिमान की
मिला सांस्कृतिक संत्रास, फटी रह गईं आँखें ज्ञान की

देख वर्जित क्षेत्र में मेरा साधिकार प्रवेश
रोकने की तिकडमे करने लगा देने लगा अनर्गल आदेश
शुरु कर दिया फिर से काटना इसने मेरी जड
लेकिन बन चुकी हूँ अब तक तो मै जंगल और बीहड

करता रहा है यह बचपन से ही यही व्यवहार
सहती आई हूँ अब तक इसके सारे अत्याचार

बौखलाहट में अब करता ये और भीषण प्रहार
वक़्त आ गया लेने का अब इन सबका प्रतिकार

छ-सात साल की थी, एक इज्जतदार ले गया खेत में
फाड़ दिया जिश्म गाड़ दिया रेत में

लौट रही थी स्कूल से दस साल की उम्र में
टकरा गए रास्ते में कुछ ठाकुरों के मेमने

जैसे ही कुछ कहने को मुँह मैंने खोला
झुंड में घेरकर लम्बरदार का बेटा बोला

गोबर पाथना छोड़ कर वेद पढेगे पासी-कोरी
कलेक्टर बनेगी अब यह, हरखुआ की छोरी?

बुलन्द किया मैंने आवाज जो विरोध की
धधक उठी ज्वाला उनके प्रतिशोध की

टूट पडे सब एक साथ कायर कुत्तों की तरह
घोंट दिया गला न हुई बर्दाश्त जिरह

लाश के साथ किया बलात्कार बारी बारी
कह दिया वर्दी ने मै खुद्कुशी से मरी

कर रही थी जब बचपन से जवानी में प्रवेश
फ़ैल रहा था चारों तरफ दलित चेतना का सन्देश

कूद पड़ी एक दलित महिला जब चुनावी मैदान में
हलचल मच गयी ठाकुरों की दालान में

मिल गया उसको जब शासन का जनादेश
सोचा था ख़त्म हो गया मनुवादी, सामंती परिवेश

धीरी-धीरे मैं बढ़ने लगी
स्वाभिमान की सीढियां चढ़ने लगी

जाती थी स्कूल उल्लास के साथ
गाती थी तराने आज़ादी के पूरे विश्वास के साथ

चौदह में हो गयी कुछ कुलीनों से तकरार
कर दिया उनकी हवश-पूर्ति से इंकार

एक ने मेरे उगते उरोजों की तरफ दिया हाथ तान
उभर गए गाल पर उसके मेरी उँगलियों के निशान

थी यह बात उनके बर्दाश्त से बाहर
घोंप दिया आँखों में चक्कू निकालकर.
२३ .०६ .२०११
है नहीं बहुत दिनों की बात
स्कूल जाती थी ठाकुरों के छोकरों के साथ

छेड़ता था सरपंच का बेटा देते थे सब ताने
बर्दाश्त के बाहर होने लगे फब्तियों के फ़साने

लेकर शिकायत गयी सरपंच के घर
पीछे से लिया उसके बेटे ने जकड़

चिल्ला कर की सरपंच की गुहार
पकड़ा मुह सरपंच ने घोट दिया पुकार

उठा लिया बाप-बेटे ने ऐसे
कटा हुआ लकड़ी का फट्टा हूँ जैसे

कर दिया सारे रिश्ते शर्मशार
मिल कर किया दोनों ने बलात्कार बार-बार

थाने गयी जब लिखाने रपट पिता के साथ
दरोगा पी रहा था व्हिस्की सरपंच के बेटे के साथ

किया रो-रो कर दरोगा से नाइंसाफी का इजहार
चूतडों पर बाप-बेटी के करने लगा वह बेंतों का प्रहार

बंद कर दिया हवालात में झूठे इल्जाम में
ख़त्म कर दिया यकीं भारत के संविधान में

इस दफा तो मैं पढी भी नहीं शादी हो गयी जल्दी
मेहनत मजदूरी से चल रही थी ज़िंदगी
बालम मेरा रिक्शा चलाता मै, करती काम चूल्हा-चौका का
सपने बुनते थे बच्चों के और उनकी शिक्षा-दीक्षा का
आई तभी भयानक आफत
ट्रक चढ़ गया मेरे साजन के रिक्शे पर
बचा नहीं कोई मोह जीने का
पर पेट में था उसका बच्चा तीन महीने का
कर रही थी मेहनत-मजदूरी से अपना जीवन बसर
छींटाकशी मर्दों की हो गयी थी बे-असर
लौट रही थी दिहाड़ी से एक दिन जब घर
दो दरिंदों ने रोक लिया बन्दूक की नोक पर
सांप सूंघ गया था मुझे मैं न कुछ बोल सकी
डर से बन्दूक के चुप-चाप साथ चलती गयी
लेजाकर वीराने में दोनों ने मुझे पटक दिया
एक ने रख कर कनपटी पर बन्दूक बाँध दिए हाथ
दूसरा चढ़कर मुझपर करने लगा उत्पात
नोचने लगे दोनों मेरा जिस्म कभी बारी-बारी कभी साथ-साथ
नहीं कर पाई माँ की दुर्दशा पेट की अवलाद दरिंदों के हाथ
दम तोड़ दिया उसने पैदा होने के पहले
हो गए चकनाचूर सारे सपने रुपहले
तभी से ढूँढ रही हूँ सनम की निशानी पागलों की तरह
अब बन्दूक लेकर खोजूँगी उसके कातिलों को फूलन की तरह
पर ऐसा तो शायद ही करूंगी
किसी का बदला किसी और से लेते डरूँगी

कभी-कभी दलित न होकर सिर्फ लड़की होती हूँ
तब भी किस्मत को उतना ही रोती हूँ
पढ़ती थी साथ कालेज में साथ गाँव के ही एक दलित के
आते-जाते साथ हम थोड़ा हिल-मिल गए थे
समझा लोगों ने था यह कुजात से प्यार का पाप
सुन ऐसा अनर्थ कुपित हो गयी पूरी खाप
पकड़ा चाचा ने हाथ मौसा ने उड़ेला जिस्म पर तेल
चचेरे भाई ने मेरे कर दिया माचिस का खेल
इस दरिन्दगी को कहा जाता है ह्त्या सम्मान की
रहना ऐसे समाज में है बात घोर अपमान की
२४ .०६ .२०११

यहाँ लड़की होना ही है एक पाप की बात
मार दी जाती हूँ गर्भ में, विज्ञान का प्रताप
न बचती तभी ही होता कम संताप
पैदा होते ही मेरे शुरू हुआ कुलदीपक का आलाप-प्रलाप
सन्नाटा छाया घर में हूँ मानो कोई अभिशाप!
लिया है मैंने भी अबकी मन में ठान
तोडूँगी समाज के पूर्वाग्रही गुमान
रचूँगी उड़कर अंतरिक्ष में एक नया आसमान
उंच नीच न होगा कोई होंगे सभी सामान
०२.०७.२०११

मैं लड़की हूँ, दलित नहीं, आदिवासी हूँ
जंगल में अपने गाँव की निवासी हूँ
रहती हूँ यहाँ बाबा आदम के जमाने से
बेदखल कर दी गयी कागज़-पत्र के बहाने से
नहीं मिली सरकार को जब कोई कागज़ पाती
छीन लिया जल-जमीन, बसा दिया दीकू-प्रवासी
पहुँच गयी मैं पार कर कईयों देश-काल
आदिम युग अपने के पूर्वजों के पास
खाते थे कंदमूल, सोते पीपल तले
किसी तरह कट रही थी जिन्दगी पास के वन में
बुनती हुए सपने नयी दुनिया के मन में
थैलीशाह-बादशाह को जब पता चली पाँव तले हीरे की बात
वहां से भी भागी लगा दावानल मचा भीषण उत्पात
आये तभी दुखियों दुःख-भंजक अवतार
आ गयी दिल्ली साथ हो रेलगाड़ी में सवार
महानगर में मुझ पर कई स्वयंसेवी सवार हुए बार-बार
बेच दिया मंडी में तोड़ इन्शानियत का एतबार
०३.०७.२०११ (contd..)

१०
एक लड़की हूँ दलित-मुसलमान
रखती हूँ फिर भी ऊंची उड़ान के अरमान
पार कर बचपन की ड्योढी हुई जब किशोर
बुनने लगी सपने, कभी तो होगी नयी भोर
पढ़ने लगी उन लड़कियों की कहानियां
नाप रही हैं जो अंतरिक्ष की ऊंचाइयां
इन्ही ख्यालों में खोई टहल रही थी, गाँव की अमराइयों में,
चढ़ उतर रही थी,
गैलेलियो और आइन्स्टाइन के ख्यालों की अतल गहराइयों में
बना रही थी तस्वीर जब एक नयी दुनिया की मन में
हवशी नज़र से देख रहा था दरोगा बैठा था सामने थाने में
सोचा, थाना है सामने डरने की नहीं कोई बात
पडी तभी अचानक गांड पर सिपाही का लात
समझ पाती जब तक यह कुठाराघात
सिपाही ने लिया मुझको तब तक पीठ पर लाद
दे खुदा का वास्ता करने लगी मैं मिन्नतें
सूनी न एक उसने ला पटक दिया दरोगा के सामने
जब वह मेरे कपडे उतार रहा था
मुझको तो जैसे सांप सूंघ गया था
याद ही नहीं मुझ पर कितनी वर्दियां चढी-उतरीं
मैं तो जैसे लाश की तरह चुपचाप पडी रही
आया होश तो कपडे पहने हुए थी
गर्दन मेरी एक वर्दी के हाथ में थी
गिड़गिडायी बहुत मांगी जान की भीख
मिलती नहीं वर्दी को लेकिन इन्शानियत की सीख
डालनी थी मौत मेरी कुद्कुशी के खाते में
लटका दिया पेड़ से थाने के आहाते में
कर दिया सिविल सर्जन ने तश्दीक खुदकुशी की
अखबार ने लिखा इसे कहानी एक नाकाम इश्क की
०५.०७.२०११

११
सुना रही हूँ लड़की होने के किस्से
कम ग़मगीन नहीं हैं आगे की किश्तें
आज तो हो गए दो हादसे
एक में अपने ही थे
दूजे में अपने ही से
एक में कुसूर था मुहब्बत का खुमार
दूजे में जुर्म था इन्शानियत पर एतबार

११(अ)
रहती थी गाँव में जाती थी स्कूल
एक लडके से हो गयी जान-पहचान की भूल
था तो वह उम्र में कुछ बड़ा
लगता था जैसे साथ का बढ़ा-पढ़ा
करने लगा जब बेचैन इंतज़ार
तब लगा हममे हो गया प्यार
कर देते अगर हम तभी इज़हार
मच जाता हाहाकार
मिलते थे हम छिप कर नदी के तीर पर
बतियाते थे लेकिन जैसे दिल चीर कर
थी उसमे कोई ख़ास बात
थी उसकी औरों से अलग सौगात
दिल इतना मिलता गया
जात-पांत पर ध्यान न गया
जब मैं अठारह साल की हुई
उसको एक नौकरी मिल गयी
मिल गया मौक़ा हमें साथ भागने का
खाया हमने कसमें साथ-साथ जीने-मरने का
कर रहे थे इन्र्तेज़ार गाडी का सोरो स्टेसन पर
तभी पद गयी हम पर एक चाचे की नज़र
ले गया जंगल के एकांत में किसी बहाने से
निकाल लिया छुपी गुप्ती पायजामे से
जब तक पाते उसका जूनून जान
कर दिया उसने दोनों को लहू-लुहान
उठने की कोशिश में हम हुए जैसे तत्पर
उठाया एक पत्थर मार दिया सर पर
मरा समझ जंगल में छोड़ दिया
सोचा उसने लेकर भतीजी की जान
बचा लिया उसने खानदान की आन
बेखबर था वह बची थी हममें अभी जान
उठ गए अगर तो खडा कर देंगे तूफ़ान
गुजर रहां था रात में एक वनचढीयों टोला
नब्ज़ देख हमारी एक बुजुर्ग बोला
बची है इनमे अभी भहे जान
किसने किया ये हाल, हैं कैसे हैवान
बचाओ इन बच्चों को, खुदा का पैगाम
लगा दो इसमे सब जडी-बूटियों का ज्ञान
होने लगी भोर जैसे-जैसे
होश हमें आने लगी तैसे-तैसे
देख हमें होश में बनचढीये आ गए जोश में
ले लिया उनने हमें प्यार से आगोश में
मैंने भी लिया ठान अपने मन में
मरेगी नहीं कोइ अब खानदान के सम्मान में
चली गए हम थाने में
हिल्ला हवाली किया रपट लिखने में
ऊपर तक जाने की जब हमने दी धमकी
तब जाकर दरोगा ने रिपोर्ट हमारी लिखी
बंद जेल में चाचा रहा है चक्की पीस
खाप के रखवालों लो इनसे थोड़ी सीख
रहते हैं मजे से बताते धता दुनिया को
गैरत से जीना है तो हिम्मत से लड़ना सीखो.
०५.०७.२०११

११( आ )
मै २२ साल की लड़की हूँ अपने बल पर रहती हूँ
करती हूँ सरकारी नौकरी किसी से न डरती हूँ
हो गयी मोहल्ले में एक सज्जन से जान-पहचान
आते-जाते हो जाती थी दुआ-सलाम
बुलाया चाय पर एक दिन चाहता था करना कोई बात
ऐतबार था इसलिए चली गयी उसके साथ
सोचा था ले जाएगा चाय की दूकान में
ले गया एक मकान में था जो बिलकुल एकांत में
बैठे थे उसके तीन और साथी पहले से ही घात में
महसूस कर रही थी चार के बीच बेबस
बारी-बारी सबने मिटायी हवश
निकलने में वहां से किसी तरह कामयाब हुई
हैवानो की रपट थाने में दर्ज हुई
अब जेल में बंद हैं तीनो कमीने
नहीं दूंगी उन्हें मैं इत्मीनान से जीने
०५.०७.२०११

१२
मैं भी एक दलित लड़की हूँ
कालेज में पढ़ती हूँ
बाप है पुलिस में सफाई-कर्मचारी
पैदल जा रही थी थी किराये की लाचारी
मिल गया रास्ते में थाना-प्रभारी
बैठा लिया जीप में हुई आभारी
जीप जब रास्ते से भटकने लगी
सांस मेरी गले में अटकने लगी
जैसे ही बोलने को मुंह खोला
चिल्लाकर साहब का अर्दली बोला
बैठी रहो चुपचाप खामोश
जानती नहीं साहब का आक्रोश
ले गए सब मुझे डाकबंगले में
नोच डाला सबने जितने भी थे अमले के
लिखा नहीं रपट
मुझे बोला दुश्चरित्र
फ़रियाद लिखा मुख्यमंत्री को
भेजा नहीं उसने एक भी संत्री को
होने लगे मुझ पर कटाक्षों के वार
दरोगा की दरिन्दगी के लिए होऊँ क्यों शर्मसार
करूंगी उजागर कारनामे इन रक्षकों के
नंगा कर दूँगी इन्शानियत के कानूनी भक्षकों को
लूंगी एक-एक से बदला होगी नहीं इसमे कोई भूल
दम अब लूंगी तभी जब मर्दवाद होगा निर्मूल
११.०७.२०११ (जारी)

१३
छत्तीसगढ़ के जिला शर्गुजा में कारछा एक गाँव है
जंगल-पहाड़ों में पचास आदिवासी परिवारों का ठाँव है

होती पैदा अगर किसी सभ्य परिवार में
शोक फ़ैल जाता पूरे गाँवों-जवार में

है नहीं ऐसा आदिवासी रीति-रिवाज में
बजे ढोल मजीरे मेरे आगाज में

पढ़े-लिखे नहीं हैं इसका मलाल था
खेती-बाडी करते थे गाँव फिर भी खुशहाल था

मैं भी पढ़-लिख सकी नहीं कुछ ख़ास
गाँव के स्कूल से थी पाँचवी पास

करती थी चरवाही, खेलती और लडके-लड़कियों के साथ
वापसी में जंगल से लाते थे लकड़ी अपने साथ

देखते-देखते हो गयी सोलह साल की
मजाक करने लगीं सहेलियां भावी ससुराल की

कहते हैं इलाके में है माओवाद का असर
खाकी वर्दी गाँव में दिखती थी अक्सर

एक दिन जब लौट रही थी हाट से लेकर नमक-मसाला
"कितनी हसीन है" एक सिपाही लार टपका कर था बोला

ठीक से याद नहीं, शायद छः जुलाई की है बात
तब से छाई है गाँव में मनहूस अंधेरी रात

आ रही थी अकेली बाग़ से टाँगे तीर-कमान
गुनगुनाते एक मुंडारी गीत, "हर कोइ एक सामान"

मदमस्त मैं चली जा रही थी गीत के ख्यालों में
बिलकुल बेखबर वर्दियों की चालों से

होती अगर उनके इरादों से वाकिफ
छेद देती तीरों से सूअर की माफिक

जब तक कुछ समझती, घिर गयी थी वर्दिओं से
लैस थीं जो गोली और बंदूकों से

बढाती हाथ निकालने को तरकश से तीर जब तक
दो-दो वर्दियों ने जकड लिए मेरे एक-एक हाथ तब तक

झुण्ड में कुत्तों की तरह एक साथ पड़े सब टूट
लगे नोचने मुझको, मची हो जैसे इस्मत की लूट

आगे-पीछे; दायें-बांयें थीं मेरे बंदूकें
मुह खोलते ही दो वर्दियों ने दबा दी मेरी चीखें

देखती रही बेबस होते खुद को निर्वस्त्र
वे ग्यारह थे मैं अकेली और निरस्त्र

हैवानो की तरह सब मुझे नोचते खसोटते रहे
ख्वाब मेरे एक-एक कर टूटते रहे

टूट चुकी थी मैं भी आ नहीं रही थी यह दुनिया रास
फिर भी बची थी मन में कहीं जीने की आस

छूटते ही वर्दियों के चंगुल से चिल्लाती हुई भागी गाँव की ओर
सजग हो गयीं वर्दिंया, पीछे से दौडीं मेरी ओर

शोर सुन कर सारा गाँव पडा फाट
शुरू कर दिया वर्दियों ने गोली-बारी की उत्पात

लड़ने को तो था गाँव भी तैयार
उसके पास नहीं था लेकिन बारूदी हथियार

देख सारा गाँव मै और तेज भागने लगी
तभी पीछे से एक गोली दायें पाँव में लगी

खाकर पाँव में गोली चलने लगी मैं लंगडाकर
उतार दीं सिर में दो गोलियां, वर्दियों ने बिल्कुल पास आकर

माँ मेरी एक वर्दी से मेरी लाश के लिए रोई-गाई
अनसुनी कर, वर्दी लाश घसीट ले गयी

देकर गए धमकी की अगर किसी ने मुंह खोला
जला कर खाक कर देंगीं वर्दियां पूरा-का-पूरा टोला

स्तब्ध थे सब देख कर अजीब वर्दी-लीला
चली गयीं वर्दियां कोई कुछ न बोला

अगले दिन हो गयी मैं एक हस्ती विश्वविख्यात
दुनियाँ भर में फ़ैल गयी मेरी मौत की बात

एक आदिवासी लड़की, चराती थी जो गोरू-डांगर
मरते ही रातों-रात बन गयी खूंखार नक्सल कमांडर

छोटी कुर्सी ने थपथपाया वर्दियों की पीठ
बड़ी कुर्सी ने कहा, है यह नक्सलवाद पर राष्ट्र की जीत

तभी कुछ अनहोनी होने लगी
कब्र में मैं धीरे-धीरे जीने लगी

देखते-देखते मेरी लाश उठने लगी
हाथ लहराते हुए नारे लगाने लगी

जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ने लगी
तन्द्रा गाँव की मेरे टूटने लगी

तोड़ कर मौन हो गया गाँव मुखर
चल पडा साथ सारे डर छोड़कर

देख नारे लगाती लाश मेरी, साथ में गाँव
छोटी बड़ी कुर्सियों के फूल गए हाथ पाँव

समर्थन में मेरे पढ़े-लिखे लोग निकल पड़े शहरों में
एक और फर्जी मुठभेड़ की हकीकत आ गयी खबरों में

मजबूर हो बड़ी कुर्सी ने मानी भूल
छोटी कुर्सी ने की वर्दियों की चूक कबूल

तब मझली कुर्सी हुई मुखर
मार दिया गलती से, नहीं जानबूझकर

होगा इस मुल्क में पूरा इन्साफ
दूध-का-दूध पानी-का-पानी साफ़-साफ़

मुखयालय भेज दिया गया उन वर्दियों को
दो लाख दे दिया गया मेरे गरीब माँ-बाप को

ऐसे ही इस निजाम में इन्साफ किया जाता है
ज़िंदा या मुर्दा इन्शान को सिक्कों से तौला जाता है
१८.०७.२०११

१४
मैं एक तेरह साल की लड़की हूँ
नारी सुधार गृह में रहती हूँ

जन्मी इस बार मै उत्तर की बजाय दक्षिण भारत में
फर्क नहीं पडा लेकिन जहालत की हालत में

जब से सम्हाला होश पाया था खुद को अनाथ
पल-बढ गयी गाँव वालों की दया के साथ

देता था जो भी दो जून की रोटी
करती थी थोड़ा-बहुत काम उसका, थी जब बहुत छोटी

जैसे-जैसे बड़ी होने लगी
मुसीबतें जीने की बढ़ने लगीं

लोग कहने लगे बन रही हूँ अब कली से फूल
कर न बैठूं गाँव मै जवानी की कोइ भूल

एक हितैसी ले कर आ गए बंगलौर शहर
लगवा दिया कोथिओं में चूल्हा-चौका के काम पर

था काम तो नहीं मुश्किल लेकिन देता गुलामी का एहसास
कसक होती थी दिल में पाने को आज़ादी का आभास

देखा पास में एक नयी कोठी बन रही थी
औरतें और लडकियां भी काम उसमें कर रहीं थी

मैं भी करने लगी भवन निर्माण का काम
थी नहीं मं किसी की गुलाम

मजदूरों के साथ खाती-सोती थी
किश्मत का रोना नहीं रोती थी

एक दिन किसी ने देखा मुझे तोड़ते पत्थर
दया दिखाया उसने मेरे कोमल हाथों पर

मैं उसके झांसे मै आ गयी
बेहतर काम की आस में साथ चली गयी

देख नज़ारा शराफत का हो गयी मैं दंग
एक कोठी के गैरेज में ले जा कर कर दिया बंद

लौटा लेकर शराब की बोतलें हाथ में
एक और भी शरीफ था साथ में

डर से मैं रही थी कांप, रोना मुझे आने लगा
हंसाने लगे वे, परसंतापी सुख मिलाने लगा

रात भर वे शराब पीते रहे
मेरे नाज़ुक जिश्म पर ज़ुल्म ढाते रहे

कई दिन तक नोचते-खसोटते रहे शरीर
बेबसी की पीड़ा से हो गयी थी अधीर

एक दिन वे रहे थे मुझको जब चीड-फाड़
कुछ राहगीर आ गए सुन मेरी चीख-पुकार

छुडाया चंगुल से राक्षों के पहुंचा दिया अस्पताल
भला हो उन लोगों का, होती रहती जाने कब तक हलाल

दरोगा ने कहा मुक़दमा दर्ज करेगा तब
होश में आ बयाब दूंगी जब

पता नहीं अब होश में कब आऊँगी
यह दु:स्वप्न कैसे भुला पाऊँगी?

जब भी होश में आऊँगी
क्या बदला एक-एक का चुकाऊंगी?

नहीं, आऊंगी ही अब होश में
जिऊंगी नहीं बदले के जोश में

दिख रहे हैं यहाँ से जीने के कई रास्ते
जिऊंगी अब खुद को साबित करने के वास्ते

होती अगर मैं सिर्फ एक शरीर
न होती जीने को इतनी अधीर

जिऊंगी बदलने को दुनिया का आकार-प्रकार
हो नहीं जिसमे कभी भी किसी का बलात्कार
[२७.०७०२०११]

१५
मैं इस बार भी बंगलौर में ही रहती हूँ
पंद्रह साल की एक दलित लड़की हूँ

रहती हूँ दादा-दादी के साथ
घर के कामों में बंटाती हाथ

किया आठवीं तक की पढाई
साथ-साथ सीखा कताई-बुनाई

बचपन में मेरे हुआ था जब पिता का निधन
माँ का यौवन था उफान पर

होता अगर किसी विधुर के पुनर्विवाह का सवाल
मचता नहीं कहीं भी कुछ भी बवाल

पुनर्विवाह का क्याल भी विधवा के लिए पाप है
धरती पर उसका वजूद चलता-फिरता अभिशाप है

कर न सकी वह पालन विधवा-धर्म का
रोक न सकी प्रवाह दिल के मर्म का

किसी का दिल उस पर आ गया
वह भी उसके दिल को बहुत भा गया

दोनों छिप-छप कर मिलने लगे
एक-दूजे को और भी जंचने लगे

पता चली लोगों को जैसे ही यह बात
मच गयी त्राहि-त्राहि शुरू हुआ उत्पात

दादा ने कहा माँ को अतुलनीय कलंक की मिशाल
छीन लिया मुझको, उसको घर से दिया निकाल

आती थी हमेशा ही माँ की मुझे याद
तब ज्यादा खाती थी जब डांट बेबात

बढ़ती रही इसी तरह सुनते हुए माँ के नाम ताने
बुनने लगी मैं भी अपनी ज़िंदगी के ताने-बाने

सोचने लगी मैं कुछ अलग करने की
ज़िंदगी को आर्थिक आधार देने की

पढी-लिखी नहीं थी कुछ ख़ास
मेहनत मजदूरी की बची आस

देखी थी एक मलयाली फिल्म
दिखा रही थी लड़की मोटर-मिस्त्री का इल्म

समय चुरा कर गयी एक गैरेज में
देख मेरी चाह पड़ गए सभी हैरत में

कारीगरी सीखने लगी
सपने सुनहरे देखने लगी

बन गयी किशोरी निकलने लगे पर
हो रही थी बेचैन थी उड़ने को तत्पर

तभी कुछ दरिंदों ने दिए मेरे पर कतर
औंधे मुह गिर पडी मैं जमीन पर

अक्सर वहां आता था एक शरीफजादा
बात-बे-बात हमदर्दी दिखाता

एक दिन जब घर जा रही थी
उसकी कार पीछे से आ रही थी

बैठा लिया गाडी में यह कह कर
उसके रास्ते में है छोड़ देगा मुझे घर

लेने लगा जब वह एक अलग डगर
बज्र गिर पडा मेरे सपनों पर

करना चाहा मैंने प्रतिकार
बना वह फ़िल्मी खलनायक साकार

बंद कर दिया ले जाकर, था एक खाली घर
पौने घंटे में लौटा तीन और को लेकर

क्या कहूं अब मैं उसके बाद की बात
तीन महीने होता रहा मेरे जिस्म पर वीभत्स उत्पात

वही समझ सकता है मेरी बेबसी की पीड़ा
जिसके तन-मन के साथ हुई हो ऐसी घिनौनी क्रीडा

किसी तरह निकल भागने में कामयाब हुई
वापस अपनों में ही बे-आब हुई

दादा ने कहा, "साली माँ पर गयी है,
इसके लिए मेरे घर में कोइ जगह नहीं है ".

दरोगा ने कहा विरोधाभास है मेरे बयान में
ले नहीं सकता वह मामला संज्ञान में

सोच में थी बारे में भविष्य के तानों-धिक्कारों के
भुक्तभोगी को कलंकिनी बनाते विचारों के

तभी मिला एक आश्रयदाता ले गया घर
बीबी उसकी गयी हुई थी पीहर

किया तीन दिन तक उसने भी सब कुछ वही
चारों ने जो तीन महीने की थी

छोताते ही उस शरीफ के चुंगुल से
अखबार के दफ्तर गयी हिम्मत करके

छ्प गयी अगले दिन एक बहुत बड़ी खबर
लोकल चैनल भी आ गया दिखाने मसालेदार मंजर

हो गया इससे प्रशासन भी थोड़ा सजग
किया जाने लगा मुझे सबसे अलग-थलग

तभी पाया माँ को खड़ी अपने साथ
ज़ुल्म के प्रतिशोध में चल पड़े ले हाथ-में-हाथ
२७.०७.२०११/२८.०७.२०११
१६
लड़की हूँ, दलित नहीं, अति पिछड़ी खरवार
यह बात जिस प्रदेश की है कहते उसे बिहार

अखबार छापते, हुआ है क़ानून व्यवस्था में सुधार
होती रही हूँ लेकिन मैं क्रूर ज़ुल्मों की शिकार

डुमरांव के पास है चिहरी गाँव
जो है मेरी दुर्दशा का ठांव

तूती बोलती यहाँ ठाकुरों की
गांजा, अफीम, हिरोइन के तस्करों की

जनतंत्र के बारे में इतनी सी है बात
पड़ते हैं वोट हमारे, किसको नहीं ज्ञात

ठाकुरों का गाँव है वही हैं यहाँ के राजा
नाऊ-धोबी-खरवार-धुनियाँ, हम सब हैं परजा

याद नहीं दस की थी या बारह की
शुरू किया था जब ठाकुरों के घर में चाकरी

देते थे दो जून की रूखी-सूखी
हाड़-तोड़ खटती थी सुनती थी खरी खोटी

दुष्कर्म तो पहले भी सही थी, थी नहीं बोली
जला देती मुझको मेरी ही बस्ती की टोली

अजीब-ओ-गरीब हैं इस दुनिया की रश्में
पीड़ित ही हो जाए कलंकिनी जिसमें

पिता भी करते थे मजदूरी और ठाकुरों की तीमारदारी
मैं करती थी उनके घरों में चूल्हा चौका और चाकरी

करती रही मेहनत जी-तोड़ इनके घरों में
मिलती है बेगारी सी मजदूरी, गाली-लात-जूते और ठोकरें

जैसे-जैसे पंद्रह की होने लगी
छोटे से घर के सपने सजोने लगी

पूरे नहीं हो सकते थे इस गाँव में ये अरमान
छोड़ने को गाँव मन में लिया मैंने ठान

कहा मालिकों से कि जा रही हूँ दिल्ली बहन के पास
करती वह भी चूल्हा-चौका-बर्तन, पर रहती इज्जत के साथ

इन्होने मुझको डराया धमकाया
महानगर का डर दिखलाया

सोचा कि होगा इससे और क्या बदतर
दिल्ली हो या हो कोई भी शहर

बताया नहीं किसी को बेखबर था गाँव
पहुँच गयी चुप-चाप स्टेसन डुमरांव

मालिकों को जाने कैसे लग गयी खबर
सारे-के-सारे पहुँच गए स्टेसन पर

लगा दिया मुझ पर चोरी का इलज़ाम
उठा लिया, चल पड़े लेने इंतिकाम

ऐसा नहीं कि स्टेसन पर कोई नहीं था
लेकिन उस समय कोई बोला नहीं था

स्टेसन पर था लोगों का हुजूम
लगता था गया हो जैसे सभी को सांप सूंघ

पांच दबंगों का मैं न कुछ कर सकी
बेबसी में सोचा फ़िल्मी अमिताभ बच्चन क्यों न हुई

ले गए सब मुझको एक मालिक के मकान में
बाँध दिए हाथ-पाँव, डाल दिया फंदा गिरेबान में

एक-एक कर जब वे कपड़े मेरे उतारने लगे
बंद कर ली आँख शर्म मुझे इतनी लगे

तभी पडी चूतड़ों पर गर्म चम्टों की चोट
रो पडी पीड़ा से दिल गया कचोट

मिल बोले सब साथ में करेंगे तेरी ऐसी हाल
कभी न हो पायेगी फिर तुम इतनी वाचाल

किया मुझसे सबने सामूहिक बलात्कार
पहुँची नहीं पटना तक मेरी चीत्कार

नोचा-खसोटा और हुए सभी मुझपर सवार
नहीं सुना किसी ने मेरी चीख-पुकार

बात नहीं पुरानी बल्कि पिछले जुलाई महीने की
ताजे हैं ज़ख्म और पीड़ा मेरे सीने की

धमकी दी कि यह बात नहीं किसी को बताने की
सोचना भी नहीं अब गाँव छोड़ कर जाने की

हिम्मत करके मैं पहुँच गयी थाने
दरोगाजी करने लगे रपट न लिखने के बहाने

बोले, "मालिक लोग हैं तेरे भगवान
कर देंगे पूरे सारे अरमान

कहूंगा थोड़ा और मेहरबानी करें
चोरी की शिकायत वापस ले-लें

वरना कर दूंगा बंद दे दूंगा तुम्हे हवालात
जानती नहीं हो होती कैसी पुलिसिया पूंछ-तांछ "

सांप सूंघ गया हो गया जैसे सन्निपात
होते रहेंगे कब तक कितने अघात

तभी हुई एक अखाबार्वाली से मुलाक़ात
पहुंचाया उसने ऊपर तक यह बात

अखबार में खबर छपी और डाक्टरों ने तस्दीक की
तब जाकर दरोगा ने बलात्कार की रपट लिखी

रपट लिखाते ही हो गए सब आरोपी फरार
दरोगा जी कर रहें हैं इनका थाने में इंतज़ार

है अपने पास पूंजी खून-पसीने की
ढूढूंगी मकसद, नई राह जीने की

आज मैं एक दोराहे पर खड़ी हूँ
चुनाव के असमंजस में पड़ी हूँ

एक राह है दिल्ली की है जो देश की राजधानी
दूसरी माओवाद की है, जो चाहता है बदलना यह रीत पुरानी
०८.०८.२०११

१७
बहुत पुरानी नहीं बात, है दो हजार दो की
ज़िंदा होती तो होती आज सत्तरह साल की

आया है आज जब मुकदमे का फैसला
हैरान है दिल देखकर इन्साफ का सिलसिला

एक को मिली उम्र-कैद बाकी दोनों को सज़ा सात साल की
एक बच्ची के बलात्कारी-हत्यारों की ज़िंदगी क़ानून ने बहाल कर दी
आप ही बाताएं बात नहीं है क्या कब्र में मलाल की?

तीनो भाइयों ने मिल कर नोचा-खसोटा था
बारी-बारी तीनों इज्ज़त मेरी लूटा था

नहीं आया जालिमों को नन्ही जान पर तरस
उनकी आँखों में नाच रही थी बदले की हवश

दर्द से रोती-चिल्लाती तड़पती रही
ज़ुल्म से लहू-लुहान होती रही

बची थी तब भी मुझमें कुछ जान
बड़ा भाई बोला तोड़ दो पूरा-का-पूरा इसके बाप का गुमान

हो गयी मैं शांत, थी मौत से अनजान
लगाने लगी इनकी अगली हैवानियत का अनुमान

एक ने उठा लिया मुझको मैं गयी इरादे ताड़
बाकी दोनों ने पड़ी टांगें दिया मुझको फाड़

पैदा हुई एक दलित पिता के घर
थे जो काफी दिनों से दूबेजी के चाकर

करते थे जी-तोड़ काम
पाते नहीं थे जिसका आधा भी दाम

उस साल कर दिया मेरे पिता ने चाकरी से इंकार
बाभन टोले को लगा था यह दलित-प्रतिकार

सो रही थी आंगन में सुबह-सुबह तड़के
चिल्लाते हुए धमक पड़े थे दूबे के तीनो लड़के

पिता को उनने काफ़ी समझाया-बुझाया
उंच-नीच का पाठ पढ़ाया

पिता हैं सीधे-सादे मजदूर
काम का उचित दाम बन गया उनका कुसूर

गुस्से में दूबे के छोकरे वापस जाने लगे
जाते-जाते गालिआं बडबडाने लगे

बोले, आ जाओ काम पर छोड़ दो हेठी
बर्बाद कर देंगे वरना तुम्हारी बेटी
सुन रही थी मैं यह आँगन में लेटी-लेटी
बड़ी होती तो शायद जवाब भी देती

आ रही थी स्कूल से बेखबर किसी बात से
तभी आ गए थे सामने वही कमीने अकस्मात् से

मैंने सोचा भी न था की गाली को ये सच बना देंगे
हैवानियत के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ देंगे.
१५.०८.२०११
१८
मैं एक दलित लड़की हूँ,
ललकार कर यह कहती हूँ

तोड़ती हूँ रोज दुहरी वर्जनाएं
पढ़ती हूँ विश्वविद्यालय में

डरती नहीं किसी से,न भूत से न भगवान से
डरूँगी फिर क्या ना-खुदा इंसान से

लड़कर लेती हूँ अपने अधिकार
सामत आ जाती है जो कर देता इनकार

ख़त्म नहीं हुई हैं कहानियां जारी है जुल्म-जोर
देख मेरी जुर्रत करता है हमले और कठोर
हमने भी लड़ना सीख लिया है अर्जित किया है जोर
फांसी पर गर्दन ज़ालिम की होगी,मैं खींचूंगी डोर

करने लगूंगी अगर खुद पर ज़ुल्म की एक एक बात
लिखा जाएंगे ना जाने कितने सारे महाभारत

झाँक कर देखिये बहुजन राज के सीने में
दो दर्जन से ज्यादा वारदातें हुईं पिछले एक महीने में

राज है वहां एक जनतंत्र की रानी का
दलितवाद जरिया है उसके सियासी रोटी पानी का

जब भी ज़ुल्म सहती हूँ होती हूँ अक्सर दलित
अजीब-ओ-गरीब है संयोगों का यह अंक-गणित

इसीलिये कहती हूँ न चलेगा सत्ता बदलने से काम
बदलने हैं हालात तो बदलना पड़ेगा निजाम

लिखेंगे जालिमों के गुनाहों का महाभारत फुर्सत में फिर कभी
लिखना है दीवारों पर ऐलान-ए-जंग की इबारतें अभी

होगा निशाने परअसली दुश्मन सिर्फ मोहरे नहीं इस बार
हमला करूंगी भूमंडलीय पूंजी पर हर जगह बार बार

हारती रही हर बार बिना लड़े हुए
सुनायी पडी पाश क़ी डांट, हम क्यों नहीं लड़े?

वक़्त है यह इतिहास बनाने का
आने वाली पीढ़ियां करेंगी काम उन्हें लिखने का
२०.०७.२०११

Tuesday, June 21, 2011

शांत ज्वाला

शांत ज्वाला
ईश मिश्रा
यह जो शांत सी मुस्कराती बाला है
अन्दर से साक्षात विप्लवी ज्वाला है
गाती है जब इंक़िलाबी गीत
हो जाते हकीम-ओ-हुकुम भयभीत
लगाती है जब विद्रोह के नारे
बौखला जाते हैं हरामखोर सारे
निकलती है जब भी जन-गण को जगाने
पहुंच जाते सारे दलाल और जरदार थाने
करने को शांत उसकी आवाज़ बुलंद
अपनाते हैं ये साम-दाम-भेद-दंड
होती जो अकेली, हो गई होती एक लाश नामालुम
लेकिन साथ है उसके नंगे-भूखों का हुजूम
21.06.2011

जमाने में क्या रक्खा है?

जमाने में क्या रक्खा है?
ईश मिश्र
जो कहता है जमाने में क्या रक्खा है?
वह इसकी चका-चौंध से हक्का-बक्का है
बहुत कुछ रक्खा है जमाने में ऐ दोस्त
बच सको गर होने से उन्माद मैं मदहोश
दिखते हैं जिसे इस छोर से उस क्षितिज तक सिर्फ़ बादल
हो गया है वह बेबस, होकर क्षणिक प्यार में पागल
ढलते दिन से जो मायूस हो जाते हैं
कल की सुंदर सुबह से महफूज़ रह जाते हैं
हो जाती जिसकी दुनिया की आबादी महज एक
समझ नहीं सहते वे विप्लव के जज़्बे का विवेक
उल्फते अपने आप ढल जाती हैं
मुहब्बत एक से जब मुहब्बत-ए-जहाँ में मिल जाती है
21.06.2011

Wednesday, June 15, 2011

कौन है ये भारत महान?

कौन है ये भारत महान?
ईश मिश्र

बचपन से सुनता आया हूँ
सारे जहां से अच़्छा अपना हिंदोस्तान
चैनल और अख़बार में चमकता है भारत महान
हुई नही आजतक उस शख़्स की पहचान
कौन है यह भारत महान?

देख लूट के इल्ज़ाम की लेखापाल की तर्जनी
निपट लेंगे भ्रष्टाचार से, भारत बन बोले मुकेश अंबानी

कुछ पेशेवर क्रिकेटर मैच हार जाए तो
वेस्ट इंडीज रौंद देता हिंदुस्तान को

बाज्पेयी और मुशर्रफ करते हैं जब चूडी-कंगनो का आदान-प्रदान
कर देते हैं वे पाकिस्तानी क्रिकेटरों बाएकाट का ऐलान
मैच फिक्सिंग मै थे जिन सबके नाम
पता नहीं कैसे बन जाते हैं वे हिंदूस्तान

जंग के हालात बनाते हैं जब भी जंगखोर
भारत बन जाते हैं सारे के सारे हरामख़ोर

न्यूक्लियर डील रहेगी हर हाल मै होकर
बन हिंदूस्तान, बोला वज़ीर-ए-खजाना का नौकर

मारना हो जब मजदूर-किसान
छोटा सा हाकिम भी बन जाता हिंदुस्तान

लूटना हो जब अवाम का जंगल, जमीन और आब
टाटा बन जाता इनका बाप
खड़ा करके नक्सलवाद के भूत का हौआ
करते हैं कारपोरेटी दलाल हिंदुस्तान होने का दावा

आदिवासी करता यदि जमीन देने से इनकार
बर्दास्त नहीं कर पाती ज़रदारो की सरकार
लूटती है इज़्ज़त,लेती है जान, नष्ट कर देती है गाँव घर-बार
चिल्लाने लगती है नक्सलवाद-नक्सल्वाद
और मार देता है भारत कई सल्झू, मिट्ठू,उमाशंकर और आज़ाद

भ्रमित हूँ समझ नहीं पता कितने हैं
हिंदुस्तान या भारत महान
पूछते हैं भूखे-नंगे और मज़दूर किसान
उनका भी है क्या कोई हिंदूस्तान?
15.06.2011
کون ہے یہ بھارت مہان؟
ایش مشرہ
بچپن سے سنتا آیا ہوں
سارے جہاں سے اچچھ اپنا ہندوستان
چینل اور اخبار میں چمک رہا ہے بھارت مہان
ہو نہی آجتک مجھکو اس شخص کی پہچان
دیکھ اپنےطرف لوٹ کے الزام کی لیخاپال کی ترجنے
بھرشٹاچار سے نپٹنے مے ہوگا کامیاب
بھارت بن بولے مکیش امبانی
کچھ پشورکرکٹر میچ ہارجین
وسط اندیج نے روند ڈیٹا ملک ہندوستان کو
بجپےے اور مشرّف کرتے ہیں جب چوڈے-کنگنو کا لندن
نکالنے لگاتے ہیں وے پاکستان سے میچ مے مخمیں
کر دیا پاکستان کےبایکاٹ کا اعلان بنکر ہندوستان
میچ فِشِنگ مے تھے جن سبکے نام
نگ کے حالات بناتے ہیں جب بھی جنگخوڑ
بھارت بن جاتے ہیں سارے کے سارے ہرامخوڑ
نیوکلیر ڈیل رہیگی ہر حال مے ہوکر
بن ہندوستان بولا وزیر-ا-کھجانا کا نوکر
مارنا ہو جب مجدور-کسان
چھوٹا سا حاکم بھی بن جاتا ہے ہندوستان
لوٹانا ہو جب عوام کا جنگل، جمین اور اب
کارپورتے دلال دکھاتے ہیں ہندوستان بنانے کا خواب
خدا کرتے ہیں ہوا جیسے کوئی بھوت ہو نَشَلوآد
اور مار دیتے ہیں کے اماشنکر اور آزاد
پریشان ہے یہ سوچکر بھوکھے-ننگے اور مزدور کسان
انکا بھی ہے کیا کوئی ہندوستان.

CPI(M)

if the CPI(M), as it is, wants to become a revolutionary party once gain, it can not. There, accidental are two option before it's leadership, sizable section of which is accidental, 1. To acknowledge the reality of their being no-different -- qualitatively and quantitatively -- from other social-democratic electoral parties and declare so. 2. To vanish. A small section within the party that still harbors revolutionary dreams and aspirations and has been feeling suffocated would either probably revolt or try to takeover the leadership in a well structured, pyramidal "politics from above." If accidental revolutionaries take charge of revolutionary politics, it is doomed to degenerate and adversely affect the revolutionary process. Two of it's top leaders are accidental revolutionaries. What happens, in student politics many students join an organization or another in search of identity and a platform. Relatively more influential platform are more attractive to such elements. About one I am not sure as he came to lime-light as President of a new university with few hundred students. The emergency time President of that University, euphemistically known as SFI God-father, did not want elections after the emergency but majority wanted. There was long debate within SFI for Presidential candidate and this accidental revolutionary, blue-eyed boy of the God-father, was preferred to one of the most agile, talented, committed and hard-working Comrades (who is no more) with consideration to better looks, presentability and accent. If CPI(M) really wants to recreate its relevance, it needs total overhauling.

جدائی کا گم

جدائی کا گم
ایش مشر
محبّت نے آپکجے کر دیا تھا ختم کام سے عاشقی
جدائی نے تو کام کا جذبہ ہی ٹوڈ دیا
ہمارے عشق کا ماجرا بھی تو تھا کتنا فرق
احساس ہی نہی ہا جدائی کا وقت آنے تک
کاش چھپے رہ جاتے تب بھی
ہوتا رہتا کم-سکم دوا-سلام

Tuesday, June 14, 2011

जुदाई का ग़म

जुदाई का ग़म
ईश मिश्र
तुम्हारी मुहब्बत से टूट गया था काम से इश्क
जुदाई ने तो काम का जज्बा ही तोड़ दिया
हमारी आशिकी भी तो थी कुछ इतनी अलग
एहसास ही नहीं हुआ इसके खत्म होने तक
काश! तब भी पता न चलता ग़र इस बात का
बना रहता रिश्ता शायद हैलो-हाय के जज़्बात का
समझ नहीं पाया था सघनता तुम्हारी कविता की धार की
सोचा, थी वह अभिव्यक्ति किशोर मन के सरल विकार की
सघन सम्वेग था जो एक सम्वेडी मन का
आवेग समझा उसे मैंने एक अलमस्त तन का
किश्तों में करता हूँ अपनी बेवक़ूफिओ पर अफ्शोस
याद आता है जब भी तुम्हारा अंतरंग आगोश
सोचा था विप्लव के सफर के होंगे हम हमसफर
फर्क फिर भी नहीं पड़ता चुने जो हमने अलग-अलग डगर
होंगे परिपक्व जब अंतर्विरोध पूँजीवाद के
टूट जायेंगे सारे अवरोध हमारे सम्वाद के
जब भी होगी युगकारी परिवर्टन की बात
खड़े होंगे हम साथ लिए हाथ-मे-हाथ
[14.06.2011

साथी चे के जन्म-दिन पर

साथी चे के जन्म-दिन पर
ईश मिश्र
जन्म-दिन मुबारक हो साथी चे! लाल सलाम
लाल-सलाम लाल-सलाम लाल-लाल सलाम
हिचक होती है थोड़ी साथी! करते हुए लाल सलाम
शुरू तुमने जो किया है दुनिया बदलने का काम
दे नहीं पाये हैं अभी तक उसे अंजाम
पैदा हुए अर्जेंटीना में की डाक्टरी की पढ़ाई
कर सकते थे,चाहते तो, खूब अच्छी कमाई
तुम्हारी आंखों में उमड़ रहा था ग़म-ए-जहाँ का समंदर
निकल पड़े तुम जहाँ से खत्म करने जुल्म-जोर का डर
नहीं सीमित हो सकता था एक देश में तुम्हारा सरोकार
तुम्हें तो करना था सारी दुनिया में इंक़िलाब का प्रचार
अर्जेंटीना हो या हो फिर बोलीविया या ग्वाटेमाला
इंक़िलाबी दस्तों की हर जगह बुनियाद डाला
मैक्सिको में हुई कास्त्रो से मुलाकात
साथ चल पड़े रोकने बतिस्ता की उत्पात
कास्त्रो की सदारत में चला आर-पार का जंग
देख गुरिल्ला जज्बा अमरीका राह गया दंग
ढह गया जब क्‍यूबा में कठपुतली का किला
उसे लगा साम्राज्य का आधार कहीं हिला
क्‍यूबा में जब किसान-मज़दूरों राज हुआ
जनवाद की तुम्हारी समझ का आगाज़ हुआ
फूंक कर मंत्र समाजवादी इंशान बनाने का
निकल पड़े रंग-ढंग देखने बाकी जमाने का
बोलीविया से किया जब अगली शुरुआत
अमरीका कांप गया सोचकर क्‍यूबा की बात
फैलते रहे ऐसे ही अगर चे के विचार
रुक जायेगा साम्राज्यवाद का प्रसार
अपने लूट-तंत्र का रसूख देख खतरे में
खत्म करने की तुम्हें करने लगा तरकीबें
मिल भी गया उसे एक कमीना गद्दार
कायरो की तरह पीछे से किया उसने वार
तुम तो व्यक्ति नहीं अमर विचार हो
क्रांतिकारी प्रेरणा के संपूर्ण संसार हो
फैल गई है दुनिया में तुम्हारी विरासत
होगी ही खत्म पूँजी के जुल्म की आफत
मुबारक हो जन्म दिन और लाल सलाम
जारी रहेगा साथी! इंक़िलाबी अभियान.
(14.06.2011)

ڈپریشن

ڈپریشن
Ish mishra
سچ ہے نیروانات کی نامزباویر کی بات
پہلے تم تھے ، اب ، نہ ہونے کا ڈپریشن
جب بھی کرتا ہوں غم -- جہاں کی باتیں
... سنیما کی ریل سی گزرتی ہیں تمہارے ساتھ کی یادیں
تھی دوستی کی خوشی بھی کافی تئی
کبھی بھی نہیں ہوئی ، کوئی ان بن
چند ٹننو کا ہی تھا اپنا ساتھ
ہو گیا کچھ مزید ہی ویوگ کا ڈپریشن
.....ئغ مصر

Monday, June 13, 2011

अवसाद

अवसाद
ईश मिश्र
सच है निर्वात की असम्भाव्यता की बात
पहले तुम थे अब न होने का अवसाद
जब भी करता हूँ ग़मे-जहाँ की बातें
सिनेमा की रील सी गुजरती हैं तुम्हारे साथ की यादें
थी दोस्ती की खुशी भी काफी सघन
कभी भी नहीं हुई कोई अनबन
चंद दिंनो का ही था अपना साथ
हो गया कुछ ज्यादा ही वियोग का अवसाद
[ईमि/13.06.2011]

मित्रों के नाम

मित्रों के नाम
ईश मिश्र
सुन सुन कर गालिया तुम सब की
छोड़ दिया कविता को फेसबुक की
अब लिखता हूँ कलम से कविता कागज पर
लानत है फेसबुकी मित्रों की लानत पर
ऋतुराज की मुहिम में ताजपोशी की
शरीक हो गए अब तो कुमार नरेन्द्र भी
खुर्शीद के रंग-ढंग तो पहले से ही नहीं थे ठीक
अब तो साथ में शिक्षा भी हो गई शरीक
सुमन के हाल तब भी हैं थोड़ा ठीक
और-तो-और अमिताभ भी हैं इसमें शामिल
कवि का क्या टूट सकता किसी का भी दिल
ऐसे में हो गए हो सभी कविता के नाकाबिल
[ईमि/12.06.2011]

Sunday, June 12, 2011

आचार्य

आचार्य
ईश मिश्र
आचार्यों का मामला तो आचार्य ही जानें
पहले तो जैसा कि हम सब हैं, साधारण माने
दर-असल हम सब साधारण इंसान हैं
लेकिन कुछ लोग असाधरणता के लिए परेशान हैं
दिखना चाहते हैं वह जो हैं नहीं वे लोग
पाल लेते हैं ढकोसले और आडंबर का रोग
यही तो सार और प्रारूप का अंतर्विरोध है
ज्ञान की प्रगति का सबसे बड़ा अवरोध है
[ईमि/11.06.2011]

Saturday, June 11, 2011

नई सुबह

नई सुबह
ईश मिश्र
आएगी ही वह सुबह रात के तिमिर को चीरते हुए
कार्पोरेटी भोपुओ को ललकारते हुए
हो जाएगी असह्य जबगरीब के पेट की ज्वाला
उतर जाएगा जब धर्म-जाति और अंधविश्वास का नशा
चलेंगी जब हर गली हर गाँव में हाथ लहराती लाशें
गाएंगी कोयल और गौरय्या आजादी के नग्मे
आएगा तब सच-मुच का जंतंत्र
खत्म हो जाएगा दुनिया से कार्पोरेटी लूट्तंत्र
[ईमि/11.06.2011]

कविता

कविता
ईश मिश्र

कविता का विषय नहीं तुम तो साक्षात कविता हो
छरहरा बदन, ज़ुल्फ जैसे अमावस्या की सविता हो
आँखें हैं चकित हिरनी सी, पके बिंब से रक्तिम होठ और अधर
लावण्य ऐसा मुख पर, पखारने से ही खारा हो गया समंदर
कमर तो है गायब रॉडनी हेप्बर्न सी
बटुक के भार से चाल में है आलस्य की मस्ती
उन्नत उरोजो के चलते तनिक वक्रता तन की
दर्शाता है प्यार की सनक किसी बेचैन मन की
ऐसी सुंदरता पर टिक जाती बुड्ढो की भी नजर
वैसे भी इश्क की नहीं होती कोई उमर या वक़्त
प्यार की खाहिश कभी खत्म नहीं होती क़ंबख़्त
इश्क हो ग़र समूची दुनिया से, शामिल हो जिसमे माशूक़ भी
ऐसे प्यार की कहानी खत्म नहीं होगी कहीं-भी कभी-भी
बन जाती है ऐसी मुहब्बत सहयात्री का रिश्ता
युग-परिवर्तन की राह पर जब मिल चलते आहिस्ता-आहिस्ता
प्यार की बुनियाद है ग़र मह्ज जिस्मानी लगाव
रहेगा इसमें झंझावात झेलने की ताकत का अभाव
आओ मिला दें दुनिया से प्यार में अपना प्यार
बन जाएँ हमसफर आशिक सब तोड़ रश्मो की दीवार
बदल जाएगा प्यार का दुश्मन यह सड़ा-गला संसार
नए युग की नई दुनिया में होगी मुहब्बत अपरम्पार
यह प्रणय-नेवेदन नहीं प्रेम-गीत है जो दुनिया से भयभीत है
आजीवन तलाश जिसकी उसका नाम मीत है
[11.06.2011]

हुसैन को श्रद्धांजलि

हुसैन को श्रद्धांजलि केतौर पर लिखा था. संभव हुआ तो लेख लिखूंगा इस पर.

में तो वैसे भी नहीं हूँ नैसर्गिक कवि
प्रयास से कुरेदता हूँ कव्यात्मक छवि
वैसे भी लिखेंगे जब हर बात पर गान
होती नहीं सभी कृतियाँ महान
होते हैं सब नियमों के अपवाद
कभी होते हैं संत कबीर तो कभी मार्क्स

कला की संस्कृति

कला की संस्कृति
ईश
कौन कहता है मर गया मक़बूल फिदा हुसैन
अब तो और करेगा वह संस्कृति के ठेकेदारों को बेचैन
कला कला के लिए नही होती, कहा उसके ब्रश ने बात माकूल
बना दिया उसने रंगों से सामासिक संस्कृति के कई पुल
जोड़ दिए जिनने कितने ही टूटे-बिछडे दिल
हैरान हो गए इससे पोंगा-पंथी, फिरकापरस्त, बुज्दिल
बुरुश से भर कर रंग बना रहा था वह देवता को भी इंशान
धर्म के ठेकेदारों को हुआ खतरा बंद हो जाएगी दुकान
खोल दिया मोर्चा कला की संस्कृति के खिलाफ
कहा, मिट जाएगा इससे तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
देख बढता कला की सामासिक संस्कृति का प्रताप
मच गया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कला-विरोधी उत्पात
शर्म आती है नागरिक कहने में इस राष्ट्र का
अंधी समझ हो जिसकी डरपोक ध्रितराष्ट्र का
तरस आती है ऐसे भयभीत समाज पर
फक़्र न हो जिसे हुसैन के रंगों के ऐतराज पर
मिलें न जहाँ शरण तस्लीमा नसरीन को
रोक न सके जो मक़बूल हुसैन को
अफसोस है मुझे ऐसे देश में रहने का
कला की सामासिक संस्कृति का अपमान सहने का.
[ईमि/10.06.2011]

डर

डर
ईश मिश्र
बहुत डर लगता है मुझे, मैं जंगल रहता हूँ
आदिवासी नाम दर्ज है मेरा भारत के संविधान में
वनवासी कहते हैं मुझे कुछ सांस्कृतिक राष्ट्रवादी
दोनों की मिली-जुली कृपा से आंतंकित है सारी आबादी
मुझे बहुत डर लगाता है, मैं जंगल में रहता हूँ
लेकिन नहीं हैं बाघ-शेर-भेडिए मेरी भय के कारण
वे भी तो वनवासी हैं, नहीं करते घात अकारण
है यह तो वर्दीधारी, सभ्य इंशान का आचरण
मैं जंगल में रहता हूँ, बहुत डर लगता है मुझे
शेर-चीता भालू से नहीं वे भी तो वनवासी हैं
सुख-दुःख के अपने साथी हैं
मुझे डर लगता है लेने में उस शख्स का नाम
सुना है दीवारों के भी होते हैं कान
लेकिन कब तक डरता रहे आदिवासी-किसान
जंगल में रहता हूँ, हूँ तो फिर भी इंसान
डंके की चोट पर करता हूँ अब ऐलान
जिससे डरता हूँ उस शख्स का नाम है हिंदुस्तान
चलाता है गणतंत्र हो शाही बग्घी पर सवार
डराता है मुल्क को लगाकर तोप-टैंकों की ब़ाजार
अमरीका का पानी भरता करता गण पर अत्याचार
जल-जमीन का सौदा करता मारता इंसान
आपरेसन ग्रीन-हंट में मार दिए काफी नौजवान
मैंने भी अब लिया मन में ठान
डर-डर कर न जिऊंगा मरूंगा शान से
न डरूंगा मौत से न ही हिंदुस्तान से
[ईमि/11.06.2011

खौफ

खौफ
ईश मिश्र

खौफ़जदा लोग हर बात से खौ़फ खाते हैं
होते हैं जो बेख़ौफ 
किसी भी बात से नहीं खाते खौफ
न खुदा से न शैतान से
तलाशते हैं बेखौफ नए रास्ते  
 तय करते हैं  अंतरिक्ष की ऊँचाई
और नापते हैं गहराई पाताल की
काटते हैं जड़ें मजहबी मायाजाल की 

जो नहीं खाते खौफ खुदा का

उन्हें नाखुदाओँ का  खौफ क्या?
मालुम हो जिसे जन्नत की हवाई हक़ीक़त 
उसे वाइज़ों के  दोजख़ का खौफ क्या?

वैसे तो हमें बचपन से ही खौफ़जदा बनाया जाता है
कभी चामुंडा बाबा से तो कभी भेडि़ए से डराया जाता है
कभी इम्तिहान का खौफ होता है
तो कभी घमासान का

कुछ बच्चे कर देते हैं बगावत
खौ़फ की हर की हर चाल से
मज़हबी मायाजाल से
पाक़-ओ-नापाक़ के जंजाल से

 देते हैं चुनौती खौफ की हर सल्तन को
खुदा-ओ-नाखुदा की हर हवाई मन्नत को
बूंजी के भूमंडलवाद को
और मीरज़ाफरो के राज को

ये बच्चे जो किसी बात से नहीं डरते
सबसे और सब पर सवाल करते हैं
नामाकूल हो ग़र जवाब
तो  हर उस जवाब पर सवाल करते हैं 

न डांट से डरते न डंडे का खौफ खाते
बढ़ते रहते हैं गीत गाते हुए मुस्कराते हुए
खत्म हो जाए यदि खौफ भूत और भगवान का
खौफ नहीं होता उन्हे नाखुदाओ के विधान का