Thursday, February 22, 2018

लल्ला पुराण 182 (धर्म)

Gitendra Singh धर्म पर मैंने अपना एक लेख इस ग्रुप में पोस्ट किया था, लेकिन ये पढ़ते तो हैं नहीं, नाम देखते ही इन पर वामी कौमी का भूत सवार हो जाता है। वेदांतियों में चारवाक हूं कविता में मैंने अपना परिचय दे दिया था। सीपीयम में घमासान (समयांतर, फरवरी) लेख भी शेयर किया था। जिन्हें ये वामी-कौमी कहते हैं, उन्हें हम वामी-कौमी मानते नहीं, वे हमें अराजक मानते हैं। लेकिन पढ़ने का धैर्य इनके पास है नहीं, ये जिल्द देखकर किताब की समीक्षा लिखने वाले लोग है। जिस तरह ब्राह्मणवाद कर्म-विचारों की बजाय जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन करता है, उसी तरह ये लोग जो लिखा है उसे पढ़कर, उनका खंडन-मंडन करने की बजाय, नाम देखते ही वामी-कौमी भूत से पीड़ित हो अभुआने लगते हैं। और कुछ नहीं मिलता तो कुछ युवा मेरे बुढ़ापे पर तरस खाने लगते हैं जैसे वे चिरयुवा ही रहेंगे? ऐसी विकृत सोच बच्चों के दिमागों में कहां से आती है? क्या हम उन्हें यही पढ़ाते हैं? धर्म पीड़ित की आह है, निराश की आश है, पीड़ा का कारण भी है, प्रतिरोध का संबल भी। धर्म खुशी की खुशफहमी देता है। किसी से धर्म छोड़ने को कहने का मतलब है उस खुशफहमी को छोड़ने को कहना है, लेकिन यह तब तक नहीं हो सकता जब तक खुशफहमी की जरूरत की परिस्थितियां नहीं खत्म होती। वास्तविक सुख मिलने पर खुशफहमी की जरूरत नहीं रहेगी, धर्म अपने आप अनावश्यक हो जाएगा। हमारा समाजीकरण ऐसा होता है कि हमारे अंदर आत्मबल पर अविश्वास बढ़ता है और दैविकता पर विश्वास। आत्मबलबोध वापस पाने के बाद इंसान को भ्रम की जरूरत नहीं रहती, वह कष्टों को तथ्यात्मक रूप से समझता है, दैवीय अभिशाप के रूप में नहीं। मेरी पत्नी का मानना है कि उनकी मनौती के चलते मुझे नौकरी मिली। मेरा क्या जाता है, अगर उन्हें इसमें खुशी की खुशफहमी मिलती है! लेकिन आत्मबल पर विश्वास की प्राप्ति के लिए कठिन और निरंतर आत्मावलोकन-आत्मसंघर्ष की जरूरत होती है। इसी दुरूह प्रक्रिया को मैं मुहावरे में बाभन से इंसान बनना कहता हूं, जनेऊ तोड़ना जिसकी पूर्व-शर्त है।
एक कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण बालक की नास्तिकता का सफर आसान नहीं था। मार्क्सवाद धर्म को नहीं, उन परिस्थितियों को खत्म करने की बात करता है जिनके चलते धर्म की जरूरत होती है, धर्म अपने आप खत्म हो जाएगा। इसी लिए हम ऐसी दुनिया बनाना चाहते हैं जिसमें कष्ट ही न हों, कष्ट-निवारक की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। कई बार सरोज जी के फूल तोड़ने के लिए गुड़हल की डाल भी लटकाता हूं। देवी को लाल गुड़हल प्रिय हैं और इसलिए खिलते ही टूट जाते हैं। कभी कहता हूं देवी को संख्या से क्या मतलब, लेकिन आस्था के सवाल पर तर्क बेअसर हो जाता है।

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