Friday, December 15, 2017

बेतरतीब 33 (बचपन 6)

भूत विमर्श 1
हमारे गांव के बाहर हर दिशा में कई आत्माएं (भूत) रहते थे। ये निर्देह आत्माएं अक्सर पेड़ों में और उसमें भी अक्सर बाग के नहीं, बल्कि अकेले पेड़ में रहती थीं। मेरे पिता जी समेत कई स्त्री-पुरुष थे जिनकी भूत-चुड़ैलों से संवाद की कहानियां गांव में प्रचलित थीं। उतने छोटे बच्चे की सोच इतनी विकसित नहीं होती कि पूछ सके कि आत्मा और फलस्वरूप भूत-चुड़ैल तो विदेह और अदृश्य होते हैं तो उनसे सदेह मुलाकात कैसे हो सकती है? मैं हनुमानचालिसा के अभेद्य कवच से लैस किसी आत्मा (भूत) से, खासकर बुढ़वा बाबा से, संवाद की उत्सुकता रहती थी। बुढ़वा बाबा घर से थोड़ी दूर नदी तीरे एक गूलर के पेड़ में निवास करते थे। सोचता था उनके दिनों की कहांनियां पूछता। जो लोग भूतों से डरते थे उनके बारे में सोचता था कि इन्हें हनुमानचालिसा ठीक से याद नहीं होगा। खैर भूमिका लंबी हो गई, विषय पर आते हैं।गांव से प्राइमरी पास किया तो सबसे नजदीक मिडिल स्कूल लग्गूपुर 6-7 किमी दूर था। साथ स्कूल जाने वालों में 3 लोग, बचन, लंगड़, बचूड़ी (रामबचन सिंह, सतीप्रसाद मिश्र और रामकिशोर मिश्र) 8वीं में थे, छठीं में मैं अकेला और 7वीं में कोई नहीं। 8वीं का बोर्ड की परीक्षा होती थी और मार्च में हो जाती थी, लेकिन बाकियों के लिए स्कूल मई तक खुला रहता था। स्कूल 10-4 बजे से 7-1 बजे का हो जाता था। एक दिन मई (1965) की कर्कश धूप की लाल-लाल जलजलाती किरणों की आभा में एक भूत दिखा। सलारपुर के बाहर मर्दहिया बाग और मेरे गांव के स्कूल के बीच लगभग 2 किमी दूरी के रास्ते में खाली खेत और बहुत बड़ा ऊसर था। बीच में दाहिने एक विशाल बखरिया का ताल था। एक बैग मेरी निगाह ताल के किनारे ऊंचाई पर लाल-लाल सी कुर्सी के आकार की आकृति दिखी, मन ही मन हनुमानचालिसा का जाप शुरू कर दिया। निगाह हटी और देखा आकृति गायब। अब तो उसके भूत होने में संदेह ही नहीं रहा। जब ताल के किनारे पहुंचा तो देखा एक आदमी धोती संभालता ताल से बाहर आ रहा था। वह बिना पॉट के हवा में युरोपियन स्टाइल पर बैठने की मुद्रा में में प्रकृति की पुकार का जवाब दे रहा था। अब सोचता हूं कि यदि वह आदमी न दिखता तो शायद भूत-प्रेत में यकीन करने वाले परिवेश में एक 9-10 साल बच्चे के दिमाग में भूतों की हकीकत की बात घर कर जाती।

No comments:

Post a Comment